भूमिका संवतों का तो प्रभाव ही है, और ये शुद्ध इतिहास की दृष्टि से नहीं किंतु काव्यरूप में अतिशयोक्ति से लिखे गये हैं बुद्ध के समय से इधर का इतिहास जानने के लिये धर्मबुद्धि से अनेक राजवंशियों और धनाढ्य पुरुषों के बनवाये हुए बहुत से स्तृप, मंदिर, गुफा, तालाव, पावडी भादि पर लगाये हुए एवं स्तंभों और मूर्तियों के आसनों पर खुदे हुए अनेक लेग्व, जो मुसल्मानों से बचने पाये, तथा मंदिर मठ भादि के अर्पण की हुई अथवा ब्राह्मणादि को दी हुई भूमि के दानपत्र एवं अनेक राजाओं के मिके, जो सांप्रतकाल में सत्य इतिहास के मुख्य साधन माने जाते हैं, बहुतायत के साथ उपलब्ध होने से उनके द्वारा बहुत कुछ प्राचीन इतिहास मालूम हो सकता था; परंतु उनकी ओर किसीने दृष्टि न दी और समय के साथ लिपियों में परिवर्तन होते रहने में प्राचीन लिपियों का पढ़ना भी लोग भूल गये जिससे इतिहास के ये अमूल्य साधन हर एक प्रदेश में, कहीं अधिक कहीं कम, उप- स्थित होने पर भी निरुपयोगी हो गये देहली के सुल्तान फ्रीरोजशाह तुगलक ने अशोक के लेखवाले दो स्तंभ ला कर देहली में खड़े करवाये उनपर के लेखों का भाशय जानने के लिये सुल्तान ने बहुत से विद्वानों को एकत्र किया परंतु वे उन लेखों को न पड़ सके. ऐसा भी कहते हैं कि बादशाह अक्बर को भी उन लेखों का भाशय जानने की बहुत कुछ जिज्ञासा रही परंतु उस समय एक भी विद्वान ऐसा न था कि उनको पढ़ कर बादशाह की जिज्ञासा पूर्ण कर सकता. प्राचीन लिपियों का पड़ना भूल जाने के कारण जब कहीं ऐमा प्राचीन लेम्व मिल पाता है कि जिसके अक्षर पढ़े नहीं जाते तो उसको देख कर लोग अनेक कल्पना करते हैं. कोई उसके अक्षरों को देवताओं के अक्षर बतलाते हैं, कोई गड़े हुए धन का बीजक कहते और कोई उसको सिद्धिदायक यंत्र बतलाते हैं. इस अज्ञान के कारण प्राचीन वस्तुओं की कुछ भी कद्र न रही इतना ही नहीं किंतु इटे हुए मंदिरों आदि के शिलालेग्व तोड़ फोड़ कर कहीं मामूली पत्थरों की तरह चुनाई के काम में लाये गये; कहीं उनकी भंग, मसाला प्रादि पीमने की सिलाएं बनाई गई ; और कहीं नये मंदिर, मकान आदि की मीढियां, छपने आदि बनाने में भी वे काम में लाये गये जिसके अनेक उदाहरण मिले हैं. कई प्राचीन ताम्रपत्र तांबे के भाव बेचे जा कर उनके बरतन बनाये गये. सोने चांदी के असंख्य सिके गलाये जा कर उनके जेवर यने और अब तक बनते जाते हैं. तांबे के प्राचीन सिके तो भव तक सालाना मनों गलाये जाते हैं. विद्या की अवनति के साथ हमारे यहां के प्राचीन इतिहास की बची खुची सामग्री की यह दशा हुई. प्राचीन ऐतिहासिक पुस्तकों का मिलना मा सर्व साधारण के लिये कठिन हो गया जिम- से प्रायः १७५ वर्ष ही पहिले तक इस देश के मुसल्मानों के पूर्व के इतिहास की यह दशा थी कि विक्रम, वापारावल, भोज, सिद्धराज जयसिंह, पृथ्वीराज, जयचंद, रावल समरसी (समरसिंह ) आदि प्रसिद्ध राजाओं के नाममात्र सुनने में माते थे परंतु यह कोई नहीं जानता था कि वे कय हुए और उनके पहिले उन वंशों में कौन कौन से राजा हुए भोज का चरित्र लिम्बनेवाले यल्लाल पंडित को भी यह मालुम न था कि मुंज (वाक्पतिराज ) सिंधुराज (सिंधुल ) का बड़ा भाई था और उसके मारे जाने पर सिंधुराज को राज्य मिला था, क्यों कि 'भोजप्रबन्ध' में सिंधुल (सिंधुराज ) के मरने पर उसके छोटे भाई मुंज का राजा होना लिखा है. जब भोज का इतिहास लिखनेवाले को भी भोज के वंश के इतिहास का सामान्य ज्ञान भी न था तथ सर्व साधारण में ऐतिहामिक ज्ञान की क्या अवस्था होनी चाहिये यह सहज ही अनुमान हो सकता है. ऐमी दशा में घड़यों ( भाटों), जागों बादि ने राजाओं की ई म. की १४ वीं शताब्दी के पूर्व की वंशावलियां गढ़त कर सैंकड़ों मन- माने नाम उनमें दर्ज कर दिये और वे पुस्तक भी इतिहास के सचे साधन और अमूल्य समझे जा कर बहुत गुस रक्खे जाने लगे
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