पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/११५

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5 ग्रंथ लिपि लिपिपत्र ५०वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- एषां वंशे रघूखां क्षितिपतिरभवदर्जयरशी- र्यकेलि(लि)स्फूर्जद्भूमा ततोभूप्रतिकरटिघटाशान- नो बेतराजः । चक्रे विक्रानबाहुस्तदनु व. सुमतीपालनं प्रोलभूपस्तत्पुत्रो रुद्रदेवस्त- दुपरि च सपोत्तंसरत्वं बमव । ततस्तत्सोद- लिपिपत्र ५५ घां. यह लिपिपत्र दोनेडि से मिले हुए पीठापुरी के नामयनायक के शक सं. १२५६ (ई स. १३३७ ) के दानपत्र, वनपल्ली से मिले हुए अन्नवेम के दानपत्र तथा कोडवीड से मिले हुए गाणदेव के शक सं १३७७ के दानपत्र से तय्यार किया गया है. वनपल्ली और कोंडवीड़ के दानपत्रों से मुख्य मुख्य अत्तर दिये गये हैं. दोनेडि के दानपत्र के क, न ( 'ज' में ), द, प, फ, व और ह में थोड़ा सा परिवर्तन होने से वर्तमान कनड़ी और तेलुगु लिपियों के वे ही अक्षर बने हैं 'फके नीचे जो उलटे अर्धवृत्त का सा चिा लगा है वह 'फ और 'प' का अंतर बतलाने के लिये ही है. पहिले उसका स्थानापन्न चिक 'फ' के भीतर दाहिनी ओर की बड़ी लकीर के साथ मटा रहता था ( देखो, लिपिपत्र ४८, ४६, ५० ) और वर्तमान कनड़ी तथा नलुगु लिपियों में उसका रूप शंकु जसी आकृति की खड़ी लकीर में बदल कर अक्षर के नीचे लगाया जाना है अनुस्वार अक्षर के ऊपर नहीं किंतु भागे लगाया है. ई स. की १४ वीं शताब्दी के पीछे भी इस लिपि में और थोड़ा सा अंतर पड़ कर वर्तमान कनड़ी और तेलुगु लिपियां बनी हैं यह अंतर लिपि- पत्र ८० में दी हुई लिपियों का लिपिपत्र ५१ से मिलान करने पर स्पष्ट होगा लिपिपत्र ५१वें की मूल पंकियों का नागरी अक्षरांतर- श्रौउ(यु)मामहेश्वराभ्यां बान)मः । पायाः करिवदनः कु(कतमिजदामस्तुताविवालिगणे । निनदति मुहरपिधत्ते का गणे) यः कण)- तालाभ्यां । श्रीविष्णुरस्तु भवदिष्टफलप्रदा- १४-ग्रंथ लिपि. ईस की ७ वीं शताब्दी मे (लिपिपत्र ५२ से ५६) इस लिपि का प्रचार मद्रास इहाते के उत्सरी व दक्षिणी प्रार्कट, सलेम, द्विविनापली, मदुरा और तिनेवेल्लि जिलों में तथा ट्रावनकोर राज्य में ई.स की सातवीं शताब्दी के पास पास से । ये मूल पंक्तियां चबोलू के लेख से हैं. ९. ऍजि ५, पृ २६४ और २६७ के बीच के प्लेटों से .. पं. जि ३, पृ ६२ और ६३ के बीच के प्लेटो से ४ ई.एँ. जि २०, पृ ३९२ और ३६३ के बीच के प्लेटों से पंक्तियां नामयनायक के दोनेडिके दामपत्र से हैं.