प्राचीनलिपिमाला. के लेख की लिपि स्थिरहस्त से लिखी गई है. पुलुकेशिन के दानपत्र की लिपि में 'अ' और 'मा' की खड़ी लकीर को बाई मोर मोड़ कर उक्त अक्षरों के सिरों तक ऊपर बढ़ा दिया है जिससे ये अचर मंगलेश्वर के लेख के उक्त अक्षरों से कुछ कुछ भिन्न प्रतीत होने लगे हैं और इन्हीं के रूमंतर से वर्त- मान कनडी और तेलुगु के 'अ' और 'मा' बने हैं (देखो, लिपिपत्र ८३ में कनड़ी लिपि की उत्पत्ति). अक्षर, जिसका प्रचार दक्षिण की भाषाओं में मिलता है, पहिले पहिल इसी दानपत्र में मिलता है. सर्वलोकाश्रय के दानपत्र की लिपि में 'इ' की दो बिंदियों के ऊपर की लकीर के प्रारंभ में ग्रंथि बनाई है और उसका घुमाव बढ़ा दिया है. इसीको चलती कलम से पूरा लिखने से वर्तमान कनड़ी और तेलुगु लिपियों का 'इ' बनता है ( देखो, लिपिपत्र ८३). 'क' की खड़ी लकीर को मोड़ कर मध्य तक और 'र' की को सिरे तक ऊपर बढ़ा दिया है. इन्हीं रूपों में थोड़ा सा और परिवर्तन होने पर वर्तमान कनड़ी और तेलुगु के 'क' और 'र' बने हैं. लिपिपल ४५वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- स्वस्ति । श्रीखामिपाद'नुया(ध्या)तानाम्मामव्यसगोचाणाऊहा(णां हा)रितोपुत्वाखाम् च- मिष्टोमानिचयनवाजपेयपौण्डरौकबहसुवर्णाश्वमेधावभृथ- बामपविषोलतशिरमा चल्यामां वंशे संभूतः शक्तिचयसं- पत्रः परावंशाम्बापूर्णचन्द्रः अनेकगुणगणालंकृतशरीर- लिपिपत्र ४६ वां यह लिपिपत्र पश्चिमी चालुक्यवंशी राजा कीर्तिवर्मन् ( दूसरे ) के केंडूरगांव से मिले हुए शक सं. ६७२ (ई. स. ७५० ) के दानपत्र से तय्यार किया गया है. इसकी लिपि त्वरा से लिखी हुई (घसीट) है और कई अक्षरों में आड़ी या म्बड़ी लकीरें बमदार हैं (देखो, इ, ए, घ, ध, ज, उदय, द, घ, प, फ, ब, भ, म, व, ह, का और दा) 'क' को 'क' के मध्य में दोनों तरफ बाहर निकली हुई वक्र रेखा जोड़ कर बनाया है लिपिपत्र ४६३ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- मदागामिभिरस्मइंश्यग्न्यैश्च गजभिगयुगेश्वर्यादीनां वि- लमितमचिगंशुचवलमवगच्छहिराचन्द्रार्कधराणवम्थिति- समकालं यशश्विकोषभिस्वदत्तिनिर्विशेषं परिपालनीय- मुक्तच भगवता वेदव्यासेन व्यामेम बहुभिर्व- सुधा भुका गजभिमगरादिभिः यस्य यस्य य- दा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं स्वन्दातुं सु- महछको दुःखमन्यस्य पालनं दामं का पा- लिपिपत्र ४७वां यह लिपिपत्र राष्ट्रकूट (राठौड़)वंशी राजा प्रभूतवर्ष ( गोविंदराज तीसरे ) के करप गांव से मिले हुए शक सं. ७३५ ( ई. स. ८१३ ) के दानपत्र' से तय्यार किया गया है. इसकी लिपि भी मूल पंक्तियां मंगलेतर के समय के लेख से है . जि.पू. २०४ और २०५ के बीच के प्लेटों से ..: जि. १२, पृ. १४ और १५ के बीच के पोटोसे
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