८० प्राचीनलिपिमाला. मोर मुड़ कर नीचे को झुकी हुई रहती है ( देखो, लिपिपत्र ३६-४८, ५२-५७ ) और अ, आ, ई, क, और र अक्षरों की खड़ी लकीरों तथा बहुधा उ, ऊ और ऋ की मात्राओं के नीचे के अंश पाई तरफ मुड़ कर घुमाव के साथ ऊपर की ओर बढ़े हुए रहते हैं (देखो, लिपिपत्र ३६-४८, ५२-५८). यही ऊपर की ओर बढ़ा हुआ अंश समय के साथ और ऊपर बढ़ कर सिर तक भी पहुंचने लगा जिससे तेलुगु-कनडी तथा ग्रंथ लिपियों में अ, आ, ई, क, झ और र की प्राकृतियां मूल अक्षरों से बिलकुल विलक्षण हो गई. इसके अतिरिक्त दक्षिण के लेखक अपने अक्षरों में सुंदरता लाने के विचार से खड़ी और पाड़ी लकीरों को वक्र या खमदार बनाने लगे जिससे ऊपर की सीधी आड़ी लकीर की आकृति बहुधा नीचे की सीधी भाड़ी लकीर की और सीधी खड़ी लकीर की आकृति ऐसी बनने लगी तथा इन लकीरों के प्रारंभ, मध्य या अंत में कहीं कहीं ग्रंथियां भी बनाई जाने लगी. इन्हीं कारणों, तथा कितने एक अक्षरों को चलती कलम से पूरा लिखने, मे दक्षिण की लिपियों के वर्तमान भक्षर उनके मूल ब्राह्मी अक्षरों से बहुत ही विलक्षण बन गये M A लिपिपत्र ३६ वां यह लिपिपत्र मंदसोर से मिलं हुए राजा नरवर्मन् के समय के मालव (विक्रम ) संवत् ४६१ (ई. स. ४०४ ) और वहीं से मिले हुए कुमारगुप्त' के समय के मालव ( विक्रम ) संवत् ५२६ (ई स. ४७२) के लेखों से तय्यार किया गया है नरवर्मन् के समय के लेख में 'य' प्राचीन और नवीन (नागरी का सा ) दोनों तरह का मिलता है. दक्षिणी शैली के अन्य लेग्वों में 'य' का दूसरा ( नागरी का सा) रूप केवल संयुक्ताक्षर में, जहां 'य' दुसरा अक्षर होता है, प्रयुक्त होता है परंतु यह लेख उत्तरी भारत का है, इसलिए इममें वैसे रूप का भी केवल 'य' के स्थान में प्रयोग हुआ है. र का दूसरा रूप 'उ की मात्रा सहित 'र' को चलनी कलम से लिग्वने से बना है, शुद्ध रीति से लिखा हुआ रूप तो पहिला ही है 'इमें दो बिंदियों के ऊपर की सीधी आड़ी लकीर को वक्र रेखा बना दिया है लिपिपत्र ६३ की मृल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- सिद्धम् सहसशिरसे तस्मै पुरुषायामिनात्मने च- तुस्समुद्रपर्यङ्कतोयनिद्रालवे नमः श्रीमालवगणानाते प्रशले कृतसंज्ञिते एकपष्टयधिके प्राप्ते समाशतचतुष्ट- य(ये) प्रारक(दका)ले शुभे प्राप्त मनस्तुष्टिकरे नृणाम् मघे(हे) प्रहत्ते शस्य कृष्णस्यानुमते तदा निष्पनौहियवसा लिपिपत्र ३७ वा. यह दानपत्र वलभी के राजा धूवमेन' के गुप्त सं २१० (ई. स. ५३६ ) के और धरसेन ( दूसरे ) के गुप्त सं. २५२ (ई. स. ६७१ ) के दानपत्रों से नय्यार किया गया है. धरसेन (दूसरे) के दानपत्र में अनुस्वार और विसर्ग की विदिनों के स्थान में माड़ी लकीरें बनाई । मेरे विद्वान् मित्र देवदत्त रामकृष्ण मंडारकर की मेजीई डल लेख की बाप से. २ पली; गु. मेट ११ से • ये मूल पंक्तियां नरवर्मन् के मंदसोर के लेख से हैं . जि. ११, पृ. ११०के पास के पेट से ..जि.८, पृ. ३०२ और ३०३ के बीच के सेटों से
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