पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/५८

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प्रस्तावना ३१ - --- 2 को ऐसे ढङ्गसे बदलें जिससे घृणा और शत्रु ताके स्थानमें प्रेम और एकताके भाव उन्नत हों। हमारे विचार में किसी राष्ट्र और देशके इतिहासको किसी जातीय स्वार्थ के लिये अशुद्ध रूपमें वर्णन करना महा पाप है। हम किसी प्रकारसे इस यातको उचित नहीं ठहरा सकते कि इतिहास-शास्त्रका उपयोग वेईमा- नीले असत्य विचारोंके प्रचारके लिये किया जावे। जातीय | खार्थों की प्राप्तिके लिये हम ऐतिहासिक घटनाओं का उलट पुलट करना अनुचित और अपवित्र कर्म समझते हैं। किसी प्रकार भी इग अनुचित और अपवित्र चेष्टाओंका परिणाम शुभ नहीं हो सकता। अतएव हमारी सम्मतिमें सन्धी देशभक्तिकी यह मांग नहीं कि यह किसी जातिको अशुद्ध इतिहासके प्रचार में सहायता दे परन्तु जहां हम देशभक्तिके लिये अशुद्ध इतिहासका प्रचार और अशुद्ध इतिहासका पढ़ाना पाप समझते हैं वहां हम अपने शासनके प्रयोजनोंके लिये किसी जातिको उसके अन्दर दास्य- प्रकृति उत्पन्न करनेके उद्देश्यसे अशुद्ध इतिहासकी शिक्षा देना अतीव जघन्य पाप समझते हैं। दुर्भाग्यसे इस समय भारतके इतिहासपर जितनी प्रामाणिक पुस्तकें हैं वे, कतिपय अपवादोंको छोड़कर, प्रायः अ-भारतीय लोगोंकी लिखी हुई हैं। कई एकने वज्ञान और अविद्यासे, कई एकने वेईमानीसे और कई एफने पक्ष- पातसे हमारे इतिहासकी घटनाओंको अपधार्थ रूपमें उपस्थित किया है। हमको लज्जासे यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि इस सम्बन्धमें जो कुछ बुरा भला मालूम है वह अ-भारतीय अन्वेषकोंके अन्वेषणका परिणाम है। इसलिये जहां एक ओर हमको उनकी मविद्या, पक्षपात और असाधुताका शोक है, वहां दूसरी ओर हमको उनके परिश्रम, पोज, अन्वेषण और सत्य- प्रियताको भी स्वीकार करना पड़ता है। गत बीस वर्षमें कई