भारतवर्षका इतिहास परिणाम निकालनेकी यह रीति अतीव सदोष और भ्रमो. त्पादक है । पाठकोंको चाहिये कि इस विषयमें मूल शास्त्रोंका अध्ययन करें। महाभारत और रामायणके विषयमें यूरोपीय विद्वानोंकी जो सम्मति है उसका सविस्तर वर्णन करनेकी आवश्यकता नहीं। मूल पुस्तकमें उसका उल्लेख किया जा चुका है। कतिपय बातोंको विशेष महत्वके कारण यहां नकल करते महाभारत के नैतिक भागमें जहाँ मानों जाति-पांतिका भेद उड़ा दिया गया है दासको भी पढ़नेका अधिकार बताया गया विद्वान दास नीतिकी भी शिक्षा दे सकता है, यद्यपि वास्तविक घटनाओं में उसको ढोरोंका स्थान दिया गया है (पृष्ठ २६८)। ग्रामोंका प्रवन्ध प्रायः स्वतन्त्र था। "राजाका शासन उसकी शक्तिके कारण शासनका रहस्य । नहीं घरन उसकी नैतिक श्रेष्ठताके कारण है। आचारहीन राजाको सिंहासनच्युत किया जा सकता है। जो राजा प्रजाको रक्षा करनेके स्थान में उसको हानि पहुँ- चावे उसे मृत्यु-दण्ड देना उचित है। वह पागल कुत्ते के सदृश है। टेक्सोंका लगाना आवश्यक है क्योंकि रक्षाके लिये व्ययका प्रयोजन है। परन्तु टेक्स आवश्यकताके अनुसार हलके होने चाहिये। व्यापारिक कमेटियोंके नियमों में राजाको हस्तक्षेप करनेका अधिकार न था। हां, मानों और पार्टीका विशेष निरीक्षण किया जाता था (पृष्ठ २६६) । पृष्ठ २७५ पर लिखा है कि यह विश्वास करने का कोई युक्तिसंगत हेतु नहीं कि धार्मिक भेदोंके कारण युद्ध किये जाते थे।
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