केम्ब्रिज हिस्टरी आव इण्डियाका प्रथम खण्ड ४३५ 'मिन्न भिन्न मत प्रकट किये गये हैं। कुछ सूत्रों और शास्त्रों में स्त्रियोंको ऊंचा स्थान दिया गया है और कुछमें बहुत नीचा। परन्तु हमारे मित्र यूरोपीय अध्यापकीको समस्त शास्त्रों से वे भाग छाँट छांटकर उपस्थित करनेका स्वभाव हो गया है जिनसे यह पाया जावे कि प्राचीन भारतमें स्त्रीकी पद्वी बहुत अपमानजनक थी। यहांतक कि कुछ सूत्रों या श्लोकोंके अर्थ भी तोड़ मरोड़ कर उनसे अशुद्ध परिणाम निकाले जाते हैं। उदाहरणार्थ हम 'अध्यापक हापकिन्सकी फुछ सम्मतियाँ यहाँ उद्धृत करते हैं:- पृष्ठ २४७ पर स्त्रियोंकी स्थितिपर विचार करते हुए बौद्धा- यन और गौतमके प्रमाणसे वे लिखते है कि स्त्री स्वतन्त्र नहीं, न यज्ञके लिये और न दायके लिये । स्त्रियाँ सम्पत्ति हैं ( अर्थात् उनको व्यक्तिगत सम्पत्ति समझा जाता है और उनके साथ उसी प्रकार बर्ताव किया जाता है)। इसके समर्थनमें वसिष्ठका आगे लिखा प्रमाण दिया गया है :- "यदि कोई गैर-व्यक्ति न्यासमें रक्खी वस्तुको या अप्राप्त वयस्कोंकी सम्पत्तिको, या खुले अथवा मुहर-बंद निक्षेपको, या स्नीको, या राजा या विद्वान् ब्राह्मणको सम्पत्तिको उपभोगमें लाये तो उस उपभोगसे (मूल स्यामीका) कोई स्वत्व नष्ट नहीं हो जाता।" यहाँपर स्त्रियों को ऐसी सम्पत्तियोंमें गिना गया है जिनपर अधिकार करने या जिनका उपभोग करनेसे प्रकृत स्वामीका अधिकार नष्ट नहीं होता। परन्तु यह बात स्पए है कि यहाँपर उदाहरणके रूपमें स्त्रीका वर्णन आया है। उससे यह तात्पर्य न था कि स्त्रीको स्थावर या जंगम सम्पत्ति रूपमें वर्णन किया जाये। एक ही अनुच्छेदमें तीन शास्त्रोंका-आप- स्तम्य, बौद्धायन, और वसिष्ठका-प्रमाण दिया गया है, परन्तु स्त्रियोंके विषयमें किसोकी भी पूरी आशायें नहीं लिखी गई।
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