३८४ भारतवर्षका इतिहास 1 विषयमें हैं। उदाहरणार्थ याज्ञवलप पि लिखते हैं कि राजाको ऐसे जज नियुक्त करने चाहिये जो वेदों तथा अन्य विद्याओंके पूर्ण पण्डित हों, जो धर्म-शास्त्र के ज्ञाता हों, जो सत्य वादी हों, और जो शत्रु और मित्रका भेद न रखें। इस प्रकारके आदेश वृहस्पति और शुक्रनीतिमें भी मौजूद हैं । नारदकी स्मृतिमें भी सविस्तर उपदेश दिये गये हैं। न्याय-सभाओंके सदस्य प्रायः ब्राह्मण होते थे परन्तु उनमेंसे कुछ दूसरे वर्णोमसे भी लिये जाते थे। ऊंची अदालतें नीची मदालतोंके निर्णयोंकी अपील भी सुनती थीं। साधारणतया इन अदालतों में दीवानी फौजदारी दोनों प्रकारफे अभियोग सुने जाते थे। चाणक्य राजनीतिक अभियोगोंकी सुनवाईके लिये एक विशेष प्रकारकी अदालतका उल्लेख करता है जिसमें कमसे कम तीन सदस्योंका होना 'आवश्यक था। इन समस्त शास्त्रोंमें पञ्चायतोंका यार यारउल्लेख मिलता है। शास्त्रकारोंने इन अदालतोंकी संहिता नियत करते समय चार प्रकारके कानूनोंका वर्णन किया है:- पहला-धर्मशास्त्र। दूसरा-व्यवहार-शास्त्र। तीसरा-चरित्र मर्यात् रवाज । 'चौथा--राज-शासन या राजाज्ञाये। परन्तु समस्त शास्त्रोंमें रवाजके अनुसार चलनेपर बहुत बल दिया गया है। अदालत एक खुले मकानमें होती थी जहां प्रत्येकको जाने- को याज्ञा थी। शुक्र-नीतिकारने स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है कि न राजाको और न न्याय सभाके सदस्योंको कोई अभियोग निज- में सुनना चाहिये। सरकारी पदाधिकारियोंको अभियोगोंमें
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