पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/४१५

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हिन्दुओंकी राजनीतिक पद्धति में लान स्थानपर हिन्दुओंके नीति-शास्त्रोंका प्रमाण दिया है। राज्यके समस्त महत्वपूर्ण विषयोंका नश्चय इस परिषद्म होता था । राजाकी अनुपस्थितिमें महामन्त्री प्रधान होता था और मतभेद होने की अवस्थामें बहुमतसे निर्णय किया जाता था। यही परिषद् कभी अपने अधिकारोंसे और कभी सर्वसाधा- रणकी स्वीकृतिसे राजाओंके गद्दीपर बैठने के सम्बन्धमें निश्चय और नयीन राजाका निर्वाचन करती थी। मंत्री। हिन्दु-शास्त्रोंमे मन्त्रियों के निर्वाचनके सम्बन्धमे बहुत विस्तारपूर्वक उपदेश दिये गये हैं। अधिक जोर इस बातपर दिया गया है कि निर्वाचित व्यक्ति यहुत शुद्धाचारी और पुण्य- प्रकृतिवाले होने चाहिये। अर्थ-शास्त्रका आगे लिखा उद्धरण नमूनास्वरूप उपस्थित किया जाता है :- "मन्त्री यह होना चाहिये जो देशका रहनेवाला हो, फुलीन हो, प्रतिपत्तिवाला हो, कला और साहित्यमें निपुण हो, वुद्धि- मान और समझदार हो, अच्छी स्मरणशक्ति रखता हो, योग्य हो, वाग्मी हो, सूक्ष्मदशी हो, सहनशील हो, ठाट-बाटवाला हो, पवित्र आचरणघाला हो, राजभक्त हो, बलवान, नीरोग, और साहसी हो, जो अधीर और विक्रमहीन न हो, जिसके स्वभावमें प्रेम हो और जो अनर्थसे रहित हो।" यह स्पष्ट है कि यह बहुत उत्तम और अत्युच आदर्श है केवल पूर्ण मनुष्योंमें ही इस प्रकारके गुण मिल सकते हैं। विष्णु- सूत्रोंका प्रमाण देते हुए अर्थ शास्त्रका रचयिता यह भी लिखता है कि ऐसे व्यकियोको मेत्री नियुक्त करना चाहिये जो अकुटिल हों, लोभी न हों, योग्य हों और सावधान हो। इसी प्रकार महा.