हिन्दुओंकी राजनीतिक पद्धति यह आज्ञा दी कि जिसके घर में आग लग जायगी उसको 'वन- वास' दिया जायगा । देवयोगसे एक बार राजभवनमें आग लग गई। राजाने अपने मन्त्रियोंसे कहा कि मुझे भी धनवास' होना चाहिये । अत. बिम्बिसार अपने पुत्रको राज्य सौंपकर धनको : चला गया । इस कथासे प्रकट होता है कि कानूनकी पावन्दीका भाव हिन्दु राजाओंके हृदयों में कैसा प्रवल था! मनुस्मृतिमें भी लिखा है कि राजाका यह धर्म है कि प्रात.काल उठकर ऐसे ब्राह्मणोंकी पूजा करे जो तीनों वेदों और राजनीतिमें निपुण हों और उनके परामर्शानुसार आचरण करे। ऐतरेय ब्राह्मणने राजाके लिये आगे राजाके लिये प्रतिज्ञा। लिखी प्रतिक्षा नियत की है। अर्थात् “यदि मैं तुमपर अत्याचार करूं तो मैंने जो भी पुण्य कर्म अपने जीवन में किया है उसका फल मुझे न मिले, और मेरा अगला जीवन और मेरी सन्तान भी मुझसे छिन जाय। महाभारतमें भी राजाओंके लिये यह उपदेश है कि “चे मन, वाणी और कर्मसे यह प्रतिज्ञा करें कि वे सदा स्वदेशको अपने लिये ईश्वर स्वरूप सन. झकर उसके कल्याणका ध्यान रखेंगे और सदा धर्मानुकूल आचरण करेंगे। वे उन नियमोंका पालन करेंगे जो धर्मशास्त्र और नीति शास्त्रने बनाये हैं। और स्वयं कभी स्वाधीन न होंगे।" शुन-नीतिके सिद्धान्तोंके अनुसार “जो राजा अपने मन्त्रि- योके परामर्शपर नहीं चलता वह “दस्यु' है । उसने राजाका भेप धर लिया है। वह अपनी प्रजाके धनका चोर है। ऐसे राजाको उसफेराज्यसे पश्चित करके राज्यसे बाहर निकाल देना चाहिये।" आरम्भमें राजाको इसी नियमके कारण हिन्दू शास्नोंके कानून बनानेका कोई अधिकार न था। कानून बनाना या कानून- अधिकार न था। की व्याख्या करना विद्वानों और शास्त्रज्ञ कानून बनानेका अनुसार राजाको
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