हिन्दुमोंकी राजनीतिक पद्धति स्तर उपदेश मौजूद हैं। मनु, गोतम, आपस्तम्भ, पसिष्ठ, योद्धा- यन, विष्णु, याज्ञवल्क्य, और नारदके नामले जो स्मृतियां प्रसिद्ध है उनमें राजाओंके कर्तव्यों, फौजदारी और दीवानी कानूनों, सरकारी करों और अदालती प्रवन्ध विषयमें सवि. स्तर उपदेश दिये गये हैं। पुराणोंमें भी राजनीति-शास्त्र तथा “शासन-विज्ञानकी यहुत कुछ सामग्री है। अग्निपुराणमें विशेष रुपसे बहुत विस्तारके साथ इस विषयपर विचार किया गया है। इनके अतिरिक्त हिन्दुओंके प्रत्येक प्रकारके दूसरे साहित्यमें ऐसे वृत्तान्तों और विवादोंका उल्लेख है जिनसे तत्कालीन राजनीतिक विचारोंका अनुमान किया जा सकता है । यूरोपीय साहित्यमें इस यातपर बहुत कुछ रास्पका आरम्भ। विचार किया गया है कि संसारमें स्टेट अर्थात् राज्यको बुद्धि फैसे उत्पन्न हुई। ऐतिहासिकोंका सामा- न्यतः यह कथन है कि जब संसारमें मनुष्योंकी संख्या बढ़ गई, और उनके बीच सम्पत्ति आदिके सम्बन्धमें झगड़े उत्पन्न हुए, और समाज परिवारों और वंशोंसे अधिक विस्तृत होने लगा, तब जनताको राज्यकी आवश्यकताफा अनुभव हुआ। उदाहर- णार्थ, महाभारतके शान्तिपर्वमें यह बताया गया है कि पहले कृतयुगमें न कोई राजा घा, न सरकार, न शासक। सब लोग धर्मानुसार रहते थे, मौर फिसी शासनकी आवश्यकता न थी। परन्तु अब धर्मका पल हीन हो गया, मोर जमताफे हृदयापर लोमानकोधने पधिकार पाबा तब उनके मदर धर्माधर्मका विचार निर्वल हो गया। बस समय देवताओने ब्रह्मासे रक्षा और शिक्षाफे लिये प्रार्थना की और उसने मपने पुत्र विराटको जगत्- का राजा बना दिया। इस वर्णमसे कुछ लोग यह परिणाम निकालतरकिरायका भारम्म मी एक प्रकारसे ईश्वरकी
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