३५२ भारतवर्षका इतिहाल . डाल देते थे। सार्वजनिक दानका प्रत्येक विभाग इस प्रकारसे सार्वजनिक निरीक्षणमें आ जाता था। देशके कला-कौशल और शिल्प- सहकारी व्यापार अर्थात् सम्बन्धी ममितियोंके विपयों इसके सम्मिलित पूंजीके पहले लिख चुके हैं। परन्तु इन व्याव- व्यवसाय। सायिक समाजोंके अतिरिक्त इस बात. का पर्याप्त प्रमाण है कि भारतमें व्यापारिक कार-बारके लिये और साहूकारोंके प्रयोजनोंके लिये सम्भूय समुत्थान या सम्मि- लित मण्डलियां होती थीं। विशेष विशेष प्रयोजनोंके लिये सैकड़ों व्यापारी और साहुकार इकट्ठ मिलकर काम करते थे और अपने भागोंको बांट लेते थे। हम यह नहीं कह सकते कि मएडलियोंकी जिम्मेदारी परिमित होती थी या नहीं। हमारी सम्मतिमें आधुनिक सभ्यताका यह अङ्ग बहुत युग है। लिमिटेड या परिमित कम्पनियोंकी प्रथा और कानूनने संसारमें इतना दुराचार फैलाया है और व्यापारिक जूएको इतना बढ़ा दिया है कि उसकी उपमा मानवी इतिहासके किसी यतीत भागमें नहीं मिलती। वर्तमानः संसारका व्यापारिक शील बहुत गिरा हुआ है । वह मनुष्यों और राष्ट्रोंके वीच रुचि- कर सम्बन्ध उत्पन्न होनेमें यहुत बाधक और हानिकारक है। संसारके सभी बड़े बड़े सहकारी विनिमय (ज्वयेण्ट स्टाफ एक्सचेंज ) ठगीके महकमे हैं। ये सब संस्थायें गरीबोंको लूटने. और पूजीवालोंके लाभार्थ बनाई गई हैं। इनका एक शुक्ल पक्ष यही है कि इनसे व्यापार और कला-भवनोंकी उन्नति होती है। परन्तु इनका कृष्ण पक्ष इनके शुक्ल पक्षकी अपेक्षा कई गुना
- उन स्थानोंका नाम है जहां कम्पनियाँ मिसे निकते और बदनी या सट्टे के
सौद किये जाते है।