भारतवर्षका इतिहास 1 और अधिक सम्भव है कि उनको यात्राका भी स्वभाव न था। हिन्दू अपने आपमें ऐसे मग्न थे कि उनकी दृष्टि में कोई दूसरा देश न जंचता था। वे जहाज़ चलाते थे; विदेशोंके साथ व्यापार करते थे ; अपने प्रचारक भी दूसरे देशोंको भेजते थे, परन्तु पे अपने स्वदेश-यंधुओंको उन देशोंकी सभ्यता, शिक्षा और अन्य वृत्तान्तोंका ज्ञान करानेका यत्न न करते थे। हिन्दू- साहित्यमें न दाराके आक्रमणका, न सिकन्दरके आक्रमणका, और न चीनी पर्यटकोंका उल्लेख है। हिन्दु-साहित्यमें अवतक न कोई ऐसी पुस्तकें मालूम हुई हैं जिनसे हिन्दुओंके पर्यटनके वृत्तात शात हो । चीनके साहित्यमें, सिंहलके ग्रंथोंमें, मुसलमानोंकीपुस्तकोंमें, यूनानियों, ईरानियों और रोमवालोंकी रचनाओं में अनेक स्थलों- पर भारतका उल्लेख है। परन्तु भारतकी प्राचीन पुस्तकोंमें दूसरे देशों का कुछ भी उल्लेख नहीं है। यदि कहीं है भी तो केवल संकेत रूपसे । दूसरी जातियोंके.ठीक ठीक वृत्तान्त न हिन्दुओंने मालूम किये और न उनको लेखबद्ध किया। अब भी कुछ हिन्दू विद्वान् इस सङ्कीर्ण दृष्टि के पक्षमें हैं, यद्यपि वे जानते हैं कि आधु- निक संसार में किसी जातिका किसी परिमित प्रदेशमें चन्द रहना, संसारके साथ मेल जोल न रखना, और व्यापारिक तथा राजनीतिक सम्बन्ध उत्पन्न न करना असम्भव है। भारतमें धर्म-भेदोंके परन्तु हिन्दुओंकी इस संकीर्ण- कारणसे कोई राजनी- दृष्टिने कभी यह रूप धारण नहीं किया कि हिन्दू-विदेशियोंको कभी अपने देशमें तिक अयोग्यता न थी। न आने दें। भारतवर्ष सदासे प्रत्येक देश, प्रत्येक जाति, और प्रत्येक धर्मके लिये बुला रहा है । हिन्दुओंने कभी अपने देशका द्वार किसीपर बन्द नहीं किया। उन्होंने न कभी विदेशियोंके पर्यटनपर ही कोई चन्धन लगाये। ६
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