३४६ भारतवर्षका इतिहास शिक्षा। परिणाम है । यह कैसे हो सकता है कि हम यूरोपीय सभ्यता. को ग्रहण करके उसके विपले प्रभावोंसे बच सकें और केवल उसके सुखद अंगोंसे ही लाभ उठायें। यह पहेली अभीतक हमारे लिये हल नहीं हुई. और हमारी समझमें नहीं आता कि यह किस प्रकार हल होगी। जो भी हो, इसको सन्तोपजनक रीति- से हल करनेका यन करना हमारा सर्वोत्तम कर्तव्य है। यूरोप और अमरीकाने शिक्षा-प्रचार और शिक्षा- विज्ञानमें बहुत उन्नति की है। उनकी शिक्षा-विधियां निस्सन्देह अनेक अङ्गोंमें प्राचीन शैलियोंसे अच्छी हैं। मुद्रण- कलाने भी शिक्षा-प्रणाली में एक फ्रान्ति उत्पन्न कर दी है। इस लिये प्राचीन शिक्षा-प्रणालियोंमें जो जोर स्मरण-शक्तिपर दिया जाता था उसकी अव आवश्यकता नहीं रही । इस पातके पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि हिन्दू-कालमें शिक्षाका बहुत प्रचार था। शिक्षाका कार्य और उत्तरदायित्व राज्यपर न था। शिक्षा- सम्बन्धी प्रयोजनों के लिये राज्य न कोई कर लेता था, और न विद्यार्थियोंसे कोई शुल्क ही लिया जाता था । ब्राह्मणिक-कालमें ब्राह्मण लोग सर्वसाधारणको विना शुल्क विद्या दान करते थे। व्यवसायी, शिल्पी,और कारीगर अपने शिष्योंको औद्योगिक शिक्षा देते थे। चीनी पर्यटकोंने तत्कालीन शिक्षा पद्धतिकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। इस शिक्षाका एक फल यह था कि लोगोंकी प्रकृति, सत्यवादिता, पवित्रता और उपकारका भाव अधिक था। शिक्षा देनेवालोंकी इतनी प्रचुरता थी कि एक अध्यापकके पास कभी इतने शिष्य न होने पाते थे जितने कि आजकलके स्कूलोंमें भिन्न २ श्रेणियों में पाये जाते हैं। बौद्धकालमें ब्राह्मणों- के स्थानमें यह काम बौद्ध भिक्षु करते थे। अध्यापकोंको समाज और राज्य दोनों मिलकर खर्च देते थे। न उनको नियत वेतन
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