३४२ भारतवर्षका इतिहास कठोरता करने के लिये उपयोगमें ला रहा है। गत महायुद्धमें इसका पर्याप्त प्रमाण मिल चुका है। प्राचीन काल में जो युद्ध होते थे उनमें उतना नर-संहार नहीं होता था जितना कि माधुनिक युद्धोंमें होता है। उन लोगोंकी प्रकृतियां चाहे उतनी सभ्य न थीं परन्तु उनके शस्त्रोंकी धार मन्द थी। हिन्दुओं का सैनिक शोल इतना उय था कि वह युद्ध करनेवालोंको किसी प्रकारका अनुचित लाभ उठानेकी आशा ग देता था। युद्ध-कालमें स्त्रियों को, वृद्धोंको, निहत्थोंको, जनताके न लड़ने वाले भागको हानि पहुँचाना यहुत बुरा समझा जाता था। धोखेसे शत्रुको मारना, या अनशनसे शत्रुको परास्त करना, या घिरे हुए विवश शत्रुपर आघात करना धीरताकी महत्ताके उप- युक्त न था। प्राचीन काल में कभी किसीको यह विचार भी न आता था कि अपने विरोधी पक्षकी प्रजाको अनशनसे मार डालनेका यत करे, अथवा उनके जल या उनके सन्नको हानि पहुँचाये । विपाक शस्त्रोंसे लड़ना भी पाप समझा जाता था। बहुतसे इतिहास लेखकोंने इस प्रकारकी हिन्दू रीतियोंकी प्रशंसा की है । हिन्दू-सभ्यताका इतने दीर्घकालतक सक्रम प्रतिष्ठित रहना इसी शीलका परिणाम है। हिन्दू-भारतमें सैकड़ों लड़ाइयां हुई;. आक्रमणकारी आये और चले गये, राजवंश बने थौर बिगड़ गये, परन्तु इन सब युद्धीमें और इन लव परिवर्तनोंमें प्रजाको विशेप हानि पहुचानेका यत नहीं किया गया। कुछ हानि अवश्य होती होगी, परन्तु उस परिमाणमें नहीं जिसमें कि आज कलके विज्ञान-वेत्ता लड़नेवाले करते हैं । युद्धके प्रयोजनोंके लिये विज्ञानका यह पाशविक उपयोग आधुनिक सभ्यताके. मुखपर एक ऐसा कलङ्क है जिसकी तुलनाका कोई कलङ्क हमको प्राचीन हिन्दू-सभ्यतामें नहीं मिलता। विज्ञानके आविष्कारों
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