३३८ भारतवर्षका इतिहास सर्वथा अयोग्य होकर अपने जीवनका अधिकांश विलासिता और पापमें व्यतीत करती हैं । प्रायः भारतीय लोग यूरोपीय और अमरीकन स्त्रियोंको दुराचारिणो बतलाकर उनपर हँसी करते हैं। मुझो उनकी दशापर दया आती है। मेरे हृदय में पश्चिमी स्त्रियों के लिये अतीव सम्मान और पूजाका भाव है। उनके दोष उनकी अपनी प्रकृति के विकारसे नहीं हैं वरन् वे यूरोपको सामा- जिक पद्धतिके परिणाम हैं । यूरोप और अमरीकाकी वर्तमान सामाजिक पद्धतिने स्त्रियोंको स्वतंत्रताके सिंहासनपर बैठाकर दिव्य पदवी-देवीपनसे गिरा दिया है। मेरी सम्मतिमें स्त्रियोंको यह स्वतंत्रता होनी चाहिये कि वे अपनी आजीविका कमा सके और ये बलात् मार्थिक दासतामें न डाली जाय । परन्तु उनको इतना श्रम करनेपर विवश करना, उनको उनकी वास्तविक पदवीसे गिरा देना है। मेरी सम्मतिमें स्त्रीके कर्तव्य ऐसे कठिन हैं कि उनको पूरा करनेके बदले में उसका अधिकार है कि पुरुष उसकी सारी आर्थिक अवस्थाओंको पूरा करे, परन्तु इस कारणसे यह उसको अपनी दासी या अधीनस्थ न समझे। ये दोनों बातें सम्भव है या नहीं, यह सन्देहास्पद है, क्योंकि साधा- रणतया संसारमें देखा जाता है कि आर्थिक शकि मर्यात् पसेकी कुक्षी ही सर्व शक्तियोंका उद्भव है। प्राचीन भारतका प्राचीन भारतमें हमको स्त्रियों की स्वतंत्रता- पर किसी अनुचित बंधनका कोई प्रमाण नहीं विचार-विन्दु । मिलता । हिन्दू शास्त्रों में, हिन्दू-इतिहासमें और पुराणों में इस बातकी पर्याप्त साक्षी विद्यमान है कि विवादके विषयमें हिन्दृ-स्त्रियां ऐसी ही स्वतंत्र थीं जैसे कि पुरूष । जो यंधन और रुकावटें उसके पीछे की स्मृतियोंमें स्त्रियोंकी स्वतंत्रतापर लगाई गई हैं वे प्राचीन कालके शास्त्रोंमें नहीं पाई,
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