पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/३७६

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। भारतवर्षका इतिहास शास्त्री ( कानूनदाँ ) और हिन्दू राजकर्मचारी प्रजाके स्वत्वों और उनकी स्वतन्त्रताकी कितनी परवा किया करते थे। हमें यह भी पता लगता है कि वर्तमान यूरोपीय पद्धतिके सदृश हिन्दुओंमें एक प्रकारका जूरी सिस्टम भी प्रचलित था । उदा- हरणार्थ, हिन्दुओंकी राजनीतिक पुस्तकों और धर्म-शास्त्रोंमें अदालतोंकी नियुकिके सम्बन्धमें यह नियम लगाया गया है कि प्रत्येक अदालतके अनेक सदस्य हों। उनमेंसे कतिपय शास्त्रज्ञ हों, और दूसरे ऐसे हों जो अपने आचरणकी दृष्टि से और उस विषयमें-जिसके सम्बन्धमें कि झगड़ा है-अपनी निपुणताकी इटिसे न्याय करनेके योग्य समझे जायें। इस प्रकार कानून, अनुभव और चरित्रको एक स्थानपर एकत्र करके अदालत बनाई जाती थी। भारतमें फौजदारी या दीवानीके अभियोगोंके निर्णय की जो वर्तमान रीति है वह इसकी तुलनामें अतीव सदोप है। कुछ शास्त्रोंमें अदालतके लिये सात या छ: और कुछ दूसरोंमें पांच जज ठहराये गये हैं। उनकी कमसे कम संख्या तीन घताई. गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन अधिकारियोंमेंसे केवल एक प्रधान विचारपति या 'चीफ़ जस्टिस' नियमपूर्वक चेतन- भोगी अधिकारी होता था और शेष सव चुने जाते थे। दूसरे जजोंको भी वेतन मिलता था या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। अदालतोंके कई दर्जे थे, जैसे कि प्रारम्भिक और अपीलकी अदालत। हम नहीं कह सकते कि क्रियामें हिन्दू-कालका न्याय इससे उत्तम था या बुरा । परन्तु यदि हम चीनी पर्यटकोंके वृत्तान्तॉपर विचार करें या यूनानी विद्वानोंके लेखोंको प्रमाणिक समझे तो उन्होंने न्यायके विषयमें एक ही शिकायत की है, और यह यह कि दएड बहुत कठोर दिये जाते थे। चीनी पर्यटक और यूनानी दूत