पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/३७३

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हिन्दू और यूरोपीय सभ्यताकी तुलना पहली बार अपने न्यायालयोंका सिलसिला इस सिद्धान्तपर स्थापित किया। परन्तु यदि क्रियाको देखा जाय तो न हिन्दुओंने इसपर पूर्ण- रूपसे आचरण किया, न रोमवालोंने और न इस समय अगरेज इसके अनुसार कार्य कर रहे हैं। भारतवर्षमें तो खुल्लमखुल्ला. दण्डविधि और अन्य कानूनों में भारतीयों और यूरोपीय लोगोंके अधिकारों और जगावदारियोंमें अन्तर प्रतिष्ठित रक्खा गया है। यह अन्तर कारागारके प्रबन्धमें भी प्रतिष्ठित है । परन्तु भारतीयों और भारतीयोंके बीच भी कियात्मक समताका कोई नामो. निशान मौजूद नहीं । अदालतोंके न्यायमें समताका भाव चना नहीं रहता । न्यायाधीशके निर्णयोंपर नाना प्रकारके प्रभाव पडते है, उदाहरणार्थ वकीलोंके, सिफारिशोंके, घूसोंके, इत्यादि इत्यादि । निर्धन लोगों और दीन, हीन, असहाय मुकद्दमेवालोंको उस प्रकारका न्याय नहीं मिलता जो धनवानों और साधन- सम्पन्न मनुष्योंको मिलता है। हम प्रतिदिन न्यायालयोंके न्याय- में धनवान और निर्धनका भेद पाते हैं। यहांतक कि गवर्नमेएट अभियोग चलाने में भी धनाढयता और निर्धनता, पद और पद्धी. का ध्यान रखती है। इसी प्रकारसे यह भेद-भाव हिन्दू शास्त्रोंमें भी पाया जाता है, परन्तु भिन्न नियमोंपर। सबसे प्रकट भेद ग्राह्मणों और अनाह्मणों की अवस्थामें देख पडता है। उदाहरणार्थ कुछ अपराधोंके दण्ड नियत करनेमें स्मृतिकारोंने ब्राह्मणों और ब्राह्मणेतरोंमें भेद रक्खा है, और ब्राह्मणों के लिये कोमल दण्ड नियत किये हैं। यह भेद कुछ व्यवसायियोंको अवस्थामें भी रक्खा गया था। परन्तु धनवान और निर्धनका कोई विचार नहीं, वरन् इस बातका मी प्रमाण मौजूद है कि कुछ अपराधों- का दण्ड ठहराते समय दरिदोंकी अपेक्षा धनवानोंको अधिक कठोर दण्ड देनेकी आज्ञा है।