हिन्दू और यूरोपीय सभ्यताकी तुलना ३२७ घटा दिया। परन्तु यदि ध्यानपूर्वक इस प्रश्नकी परीक्षा को जाय तो जान पड़ेगा कि यद्यपि इस आपत्तिमें कुछ सत्यांश अवश्य है, परन्तु उतना नहीं जितना कि हमारे आपत्ति करने- वाले सज्जन प्रकट करना चाहते हैं। काम करना, परिश्रम करना और काम तथा श्रमसे भाजीविका कमाना-चाहे यह काम और वह थम किसी भी प्रकारका क्यों न हो-मानवी महत्ताको नहीं गिराता । यदि कोई व्यक्ति अपने वस्त्र धोता है, अपने घरको साफ करता है, अपना विटा उठाता है तो उससे वह नीच नहीं हो जाता।और जो व्यक्ति स्वतन्त्रतापूर्वक बिना किसी दूसरे. की अधीनताके ऐसा करता है यह अपनी महत्ताको किसी 'प्रकार फम नहीं करता । इसी प्रकार यदि समाज अपनी सय आवश्यकतामोंको इस प्रकार यांट लेता है कि विशेष विशेष भाग विशेप विशेष काम करते हैं, तो इससे भी उन लोगोंकी महत्ता. में-जिनको श्रम करनेका कामसौंपा जाय-यन्तर नहीं पड़ता। परन्तु जब यहु-संख्यक मनुष्य-समुदायको दैनिक या मासिक चेतनपर श्रम फरना पड़े और इस धम-मजदूरीका मिलना या • न मिलना किसी एक मालिक अधिकारमें हो तो ऐसी मज- दूरीसे मनुष्यकी स्वतन्त्रतामें बहुत कुछ अन्तर आ जाता है। अध्यापक रिस डेविड्स स्वीकार करते हैं कि २५०० घर्ष हुए भारतमें चेतनपर धम करना यहुत निन्दित समझा जाता था। इसका यह अर्थ है कि जनताका एक बड़ा भाग अपना काम आप करता था। धनाढ्यों और पूंजीवालोंसे वेतन लेकर उन. का काम नहीं करता था। दूसरोंसे वेतन लेकर उनका काम करना-चाहे वह कैना ही अच्छा काम क्यों न हो-फुत्सित गिना जाता था। काम करनेका माहात्म्य यह है कि मनुष्य क्सिी प्रकारफे फामसे जो उसके या उसके समाजके लाभार्थ . ६
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