हिन्दू और यूरोपीय सभ्यताको तुलना पश्चात् हमको बहुत सन्देह हो जाता है. कि क्या यह शासन- पद्धति साधारण प्रजाके लिये यहुत लाभदायक है। मजाको लिये वही पद्धति लाभदायक हो सकती है जिसमें गवर्नमेण्ट 'प्रजाकी सेवक हो। उसका अस्तित्व समस्त प्रजाके हितके लिये हो, न कि विशेष श्रेणियोंके लिये। यूरोपकी समस्त जातियोंको ये अधिकार नाममात्रको ही प्राप्त है कि वे अपनी गवर्नमेंटोंको बनाये रक्खें या अलग कर दें। प्रजाकी प्रत्येक श्रेणीको वोट अर्थात् मत देनेका अधिकार है, परन्तु वास्तव में ये समस्त अधिकार, धनवानों गौर साहुकारोंके हाथमें हैं। प्राचीन भारतमें इस प्रकारका पार्लिमेंटरी शासन न था। परन्तु साथ ही इस प्रकारका वैयक्तिक शासन भी न था जैसा कि यूरोपमें प्रायः फांसकी राज्यक्रान्तिके पूर्वतक रहा। अँगरेज़ोंका दावा है कि उन्होंने इस देश में प्रतिनिधि संस्थायें (रिपरिजेंटेटिव इन्स्टीट्यूशन्स ) प्रचलित की। परन्तु जब हम उन कानूनों- का अध्ययन करते है जिनके अधीन उन संस्थाओका प्रबन्ध होता है तो हमें मालूम हो जाता है कि प्रजाके प्रतिनिधियोंका अधिकार सचमुच बहुत थोड़ा है, और शासनके समस्त सूत्र एक विजातीय नौकरशाहीके हाथमें हैं। नौकरशाही किसी अंशतक प्रत्येक शासनका आवश्यक अड्ड है, परन्तु इस नौकरशाहीके सदस्य जितने कम हों, और प्रजाके प्रति उसकी जिम्मेदारी जितनी अधिक हो, प्रजाको उतनी ही अधिक स्वतंत्रता प्राप्त होती है। इस सम्बंध जब हम प्राचीन हिन्दू राजनीतिक प्रथाओं की तुलना आधुनिक यूरोपीय पद्धतिके साथ करते हैं तो निश्चय ही हम अपने आपको यह कहनेके योग्य नहीं पाते कि परोपीय- पद्धति प्राचीन हिन्दु-पद्धतिसे अच्छी है। अधिकसे अधिक यह कहा जा सकता है कि कुछ अंशोंमे वह अच्छी थी और
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