२८८ भारतवर्षका इतिहास था कि कुछ श्रीमतियां भारतीय परिधान पहनकर निर्लज्जताकी दोपी होती हैं। वह भारतको मलमलको 'चुनी हुई पवन'के नामसे धुकारता है । लोनी शिकायत करता है कि रोमन साम्राज्यसे प्रति वर्ष ७५ लाख की पूजी भारतको जाती है। म्योमन (१) ने इसकी संख्या ७॥ करोड़ बताई है। प्लीनके शब्दोंमें यह सारा मूल्य उन विलासिताकी वस्तुओंका था जिनका उपभोग रोमन रमणियां करती थीं। उस समय रुई, ऊन और रेशमके कपड़े बनते थे। उनके वस्त्रों में सबसे नफ़ीस चूहोंकी ऊन गिनी जाती थी। रेशमके कपड़ेके ३० प्रकार थे, जो चीनके रेशमी कपड़ेसे सर्वथा मिन्न थे। सईके कपड़ेकी प्रशंसामें यह कहा जाता था कि "वह 'सांपकी कॅचली और दूधके धुएँ के सदृश सूक्ष्म थे और उनका तागा आँखसे नहीं पहचाना जा सकता था।" अनेक अंगरेज पर्यटकोंने ईसाकी अठारहवीं शताब्दीमें भी भारतीय मलमलकी वारीकीकी (जो उत्तर और दक्षिण दोनों प्रदेशोंमें धुनी जाती थी ) प्रशंसामें लगभग ऐसे ही प्रशंसात्मक शब्दोंका प्रयोग किया है जैसे कि रोमन लेखकोंने किया है। पश्चिमी समुद्रतटके यन्दर मुज़िरिससे भागे लिखी वस्तुयें पश्चिमको जाती थी:- काली मिर्च, मोती, हाथी दांत, रेशम, पान, हीरा, लाल, कछुएकी खाल, अन्य प्रकारके बहुमूल्य और चमकीले पत्थर और दारचीनी।
- यह राशि भिन्न भिन्न रोहिसे बताई गई है पोळे एक स्थानपर हमने इसी
पुस्तकम १५ करोइ लिखा। बभिप्राय प्रचुर धनसे । रिसका मठिस्तर यम देन महासयको एकक है। वह दईक मिल्प का इमि- मा