२४० भारतवर्षका इतिहास संन्यासी सम्मिलित थे, एकत्र हुए। मेला दाई मासतक रहा और प्रत्येक प्रकारका धार्मिक पूजन होता रहा। पहले दिन बुद्धको मूर्ति स्थापित की गई और असीम कोमती कपड़े और अन्य वस्तुयें घांटी गई। दूसरे दिन सूर्यको मूर्ति स्थापित की गई, और तीसरे दिन शिवकी । प्रत्येक अवसरपर पहले दिनको अपेक्षा आधा धन बांटा गया। चौथे दिन दस सहस्र चुने हुए भिक्षुओंको दान दिया गया। प्रत्येक भिक्षुको उत्तमोत्तम भोजनों, फूलों और सुगन्धित वस्तुओं सहित एक सौ सोनेकी मुद्रा, एक मूर्ति और एक परिधान दिया गया। इसके पश्चात् वीस दिन- तक ब्राह्मणोंको दान मिलता रहा । फिर दस दिनतक जैन और अन्य धर्मके पुजारियोंको दान मिला । तब उतना ही समय उन फकीरोंको दान दिया जाता रहा जो दूर दूर स्थानोंसे आये थे। फिर एक मासतक दरिद्र, अनाथ और धनहीन लोगोंको दान दिया जाता रहा। इस पक्षमें राजाने अपनी प्रत्येक अधिकृत वस्तुको दानमें दे दिया । और अन्तको अपनी यहिन राज्यश्रीसे एक पुराना परिच्छद मांगकर युद्धकी मूर्ति के सामने अन्तिम पूजा की। हिन्दु-शास्त्रोंमें इस प्रकारके पक्षको सर्वस्वपक्ष कहा है। कहते हैं कि मेलेकी समाप्तिपर हर्षके अठारह करद राजा. भोंने राजकीय सामग्नी और वस्तुयें खरीदकर हर्षको दे दी। परन्तु थोड़े दिनों में हर्पने फिर जो अतीव मूल्यवान वस्तुयें थीं ये दानमें दे दी। इस मेलेके दस दिन पीछे चीनी पर्यटकने अपने देशको प्रस्थान किया। राजाने. यहुतसा सोना चांदी और मूल्यवान् पदार्ग उसके भेंट किये परन्तु उसने राजा कुमारसे केवल एक समुरका कोट स्वीकार किया। शेष सब वस्तुओंके लेनेसे इन्कार कर दिया। परन्तु महाराज हर्पने उसके मार्ग: ध्ययो लिये तीन सहस्र मुहरें और दस सहस्र चांदीके सिको
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