हर्षका धर्म्म।आरम्भ में हर्ष और उसकी बहिन, जिसकी चतुराई और योग्यताको यड़ी प्रशंसा थी, हीनयान सम्प्रदायके उपासक थे। परन्तु ह्मनसांगने एक विशेष पुस्तक लिखकर राजा के मन में महायान निकाय का ऐसा गौरव बैठाया कि उसने एक बड़ी सभा बुलाई ताकि उसमें हीनयान और महायान के सिद्धान्तों की तुलना की जाय। राजा उस समय बङ्गाल में था। वह गङ्गाके दक्षिण तट से कूच करता हुआ नज्में दिन में कन्नौज पहुंचा। दूसरे तटपर उसका मित्र कुमार भी बड़े समारोह के साथ कूच कर रहा था। सन् ६४३ ई० के फरवरी और मार्च मास में राजाने कन्नौज के बाहर उस अस्थायी शिविर में जो बड़ी सजधजके साथ इस सभा के लिये बनाया गया था, डेरा किया। इस सभामें कामरूपका राजा कुमार, वल्लभी का राजा जो विवाहके नातेसे हर्ष का सम्बन्धी था, और अन्य अठारह करद राजे सम्मिलित थे। चार सहस्र भिक्षु आये थे जिनमें से एक सहस्त्र केवल नालन्दा विश्वविद्यालय के थे। तीन सहस्त्र ब्राह्मण और जैन पण्डित थे। ये बड़े बड़े मठधारी साधु अतीव समारोह के साथ इस सभा में सम्मिलित हुए। हाथियों पर या पालकियों में सवार होकर गाजे याजे और पताकाओं के साथ आये, जैसा कि वर्तमानकाल में कुम्भ मेलेपर मठधारी और मण्डलाधीश महन्त और गुरु आदि आया करते हैं।[१]
सभाके धुरीण सदस्योंके लिये एक अति सुन्दर मण्डप रचा गया। उसके बीच में एक ऊंचा मीनार लकड़ी और फूसका बनाया गया। उसके ऊपर भगवान् बुद्धकी सोने की मूर्त्ति, रखी गई। बह ऊंचाई में राजा के डील के बराबर थी। उसके साथ ही तीन फुट ऊंची एक और छोटो मूर्त्ति तैयार की गई। वह कई
- ↑ जान पड़ता है कि यह रीति उसी समय से प्रचलित हुई है।