वर्ण। महाराजा हर्ष और चीनी पर्यटक ह्य नसाङ्ग २३० भाग राज्यके व्यय और राजकीय पूजा-पाठके लिये रक्खा जाता था। दूसरे भागसे विद्वानोंको पुरस्कार और पारितोषिक दिये जाते थे। तीसरे भागमेंसे राजकर्मचारियों को वेतन, पारितो. पिक और उपहार मिलते थे। और चौथा भाग भिन्न भिन्न धार्मिक सम्प्रदायोंको दान देनेके लिये सुरक्षित रहता था। घनसाङ्ग लिखता है कि राजकर्मचारियोंको उनके कामके अनुसार वेतन दिया जाता था और किसी व्यक्तिको किसी कामके लिये विवश नहीं किया जाता था। उस समय के जिन राजाभाका उल्लेख उस समय के इस चीनी पर्यटकने किया है उनमें सभी वर्ण- राजाओंका के मनुष्य घे अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, घेश्य और शूद। ऐसा प्रतीत होता है कि राजगही पाते ही सर कोई क्षत्रियपदको प्राप्त हो जाते थे। साधारणतया भारतीयोंके शीलके विष- साधारणतया यमें घनसाङ्ग घेसी ही उच्च सम्मति प्रकट भारतीयोंका करता है जैसी कि उसके पहले फाहियानने की थी। यद्यपि कोई यह नहीं कह सकता कि उस समय भारतमें ऐसे शासक विद्यमान न थे जो धार्मिक पक्षपांतके कारण अन्य धर्मावलम्बियोंके साथ पक्षपात और दुरा- ग्रह न करते हों, तथापि सर्वसाधारणके विषयमें वह यह साक्षी देता है कि ये संकीर्णहृदय और पक्षपातयुक न थे। वे प्रायः सुशिक्षित विद्या-व्यसनी और अतिषि-सत्कार करनेवाले थे। उसके समयमें धार्मिक सम्प्रदाय असंख्य हो गये थे। उनमेंसे कुछ यौद्ध थे और कुछ हिन्दु । वैष्णव और शेष साधुओंके परिधानका वृत्तान्त उसने विस्तारपूर्वक लिखा है। ये इस समयके वृत्तान्तोंके सर्वथा अनुशल है। एनसांग प्रालणों और शील।
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