गुप्तवंशका राज्य विस्तार २१३ धनाया था। परन्तु फिर भी विक्रमादित्यके शासनकालमे पाटलीपुत्र अभी बहुत जनाकीर्ण और सुन्दर नगर था। जर फाहियानने पहली बार पाटलीपुनके दर्शन किये तो यह महा- राज अशोकके राजभवनोको देखकर ऐसा विस्मित हुआ कि उसके लिये यह विश्वास करना असम्भव हो गया कि ये राज- प्रासाद मनुष्योंके यनाये हुए हैं। उस समय एक स्तूपके निक्ट दो मठ थे। इनमेंसे एकमें महायान सम्प्रदायके और दूसरे, हीनयान सम्प्रदायके भिक्षु रहते थे। यह स्थान अपनी पिया और गौरवके लिये ऐसा प्रसिद्ध था कि चारों बोरसे विद्यार्थी वहा भाते थे। फाहियान पश्चिमी चीनसे होता हुआ गोवी मरुस्थलके दक्षिणसे लांघकर खुतनके रास्तेसे भारतमें पहुंचा। पुतनकी प्रजा महायान सम्प्रदायके चौद्ध धर्म को मानती थी। पामीरके प्रदेशको बडी कठिनाइयोंसे पार करके वह सवातसे होता हुआ पेशावर और तक्षशिला पहुचा। उसने पाटलीपुत्र- में तीन वर्ष व्यतीत किये गौर इसके बाद वह दो वर्ष बङ्गालके अन्तर्गत मिदनापुर जिलेके नमलूक नगरमें रहा। उन दिनों तमलूकका नाम ताम्रलिप्ति था और यह एक यडा बन्दरगाह था। कहते हैं फाहियानने पुस्तकोंकी पोजके लिये यात्रा की थी उसने अपनी पुस्तकमें राजनीतिक घटनाओं का बहुत थोडा उल्लेप किया है। फिर भी उसके भ्रमण वृत्तान्तमें तत्कालीन सभ्यताका जो फुछ वर्णन मिलता है उससे भारतकी पर्याप्त बातें मालूम हो जाती है। फाहियानके कथनोंसे प्रतीत होता है कि मगधर्मे वहे बडे नगर थे। लोग बहे धनाढ्य और सुखो थे। दानशील सस्थायें अगणित थीं। पथिकों के लिये सभी सड़कों, पर सराय और धर्मशालायें बनी हुई थीं भीर पाटलीपुत्र एक 1
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