1 महाराजा बिन्दुसार और महाराजा अशोकका राजत्वकाल १०६ साप दया और मनुकंपाका व्यवहार करे। उसने लोगोंको भपने सम्बन्धियों, साधुओं और ब्राह्मणों की सेवाका उपदेश दिया और मित्रों और परिवितोंको उदारतापूर्वक सहायता करना उनका कर्तव्य ठहराया। सत्य-प्रेम और दूसरे उसकी शिक्षाका तीसरा अङ्ग सच धम्मका सम्मान वोलना था। ये तीन प्रथम श्रेणीके धर्म गिने जाते हैं। उसने प्रत्येक व्यक्तिका यह भी कर्तव्य ठहराया कि वह दूसरोंके धर्म, विश्वास और उपासनाकी रीतिमें बाधक न हो और प्रत्येकके साथ सहानुभूति भीर प्रेमका व्यवहार करे। प्रत्येक व्यक्तिके लिये दूसरोंके धर्म या विश्वासके विषयमें कठोर शब्दों के व्यवहार करनेका कडा निषेध था, क्योंकि उसकी सम्मतिमें सब धम्मोकी शिक्षा जीवनको आवश्यकताओंकी पवित्रता और इन्द्रियोंके दमनकी भोर ले जाती है। अशोक अपने जीवन में सभी धम्मों को सम्मा- नकी दृष्टिसे देखता और उनके उपदेशकों और प्रचारकोंकी सेवा करता रहा। अशोकने दानकी बहुत महिमा की है दान-पुण्य । परन्तु सबसे बड़ा दान धर्मका दान बतलाया है। एक चिट्ठी में उसने लिखा है कि अस्पताल मनुष्योकी शरीर- । रक्षाके लिये है, और मन्दिर पुण्यके लिये बनाये जाते हैं, परन्तु वास्तविक धर्मात्मा वे हैं जो मनुष्योंको माध्यात्मिक भोजन देते। रीतिया। अशोक अनुष्ठानोंकी परवाह न करता था। वह जीवनकी पवित्रता और दूसरोंके साथ मादर, ; प्रेम और उदारताके व्यवहारको ही महापदवी देता था। उसने एक सानपर यह भी लिखा है कि धर्मात्मा बननेका वास्तविक
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