1 बौद्ध और जैन धम्माका भारम्भ १२१ दल उनके गिर्द एकत्र होने लगे। परन्तु उनको इससे भी सन्तोप नहीं हुआ। यहांतक कि एक दिन बुद्धदेव अत्यन्त व्यथित होकर गिर पड़े। कुछ कालतक उनके शिष्योंने यही समझा कि गुरुदेवको आत्मा उनके पार्थिव शरीरको छोड़ गई है। परन्तु उनका प्राणान्त नहीं हुआ। वे इस परिणामपर पहुंचे कि इस प्रकार शरीरको कष्ट देनेसे कुछ लाभ नहीं हो सकता। जब तपस्यासे भी शान्ति न हुई तो वह भी छोड़ दी। उनके इन कर्मसे उनके साथियोंमें बहुत अश्रद्धा उत्पन्न हो गई और चे उनको छोड़कर काशी चले गये। कुछ काल युद्धदेव एकानी बनोंमें विचरते और चिन्तनमें मग्न रहे। मन्तको ये इस परिणाम- पर पहुंचे कि विश्व प्रेम और पवित्र जीयनसे ही मनुष्यको शान्ति मिल सकती है। उन्होंने समझा कि धर्मको वास्तविक चावी अब मुझे मिल गई। मानो उन्हें आकाशवाणी हुई कि जो सचाई तुम्हें मिली है उसका प्रचार करना-उसे दूसरोंतक पहुंचाना तुम्हारा कर्तव्य है। 'बुद्धका प्रचार। शाक्यमुनि इस हर्पमें मन काशी पहुंचे। यहां उन्होंने अपने धर्मका उपदेश करना आरम्भ किया । युद्धके तप छोड़नेपर जो पांच शिष्य अश्रद्धाके कारण उनसे अलग हो गये थे वही सबसे पहले उनके धर्म में सम्मिलित हुए। उनमेसे एकका नाम यश था। यह एक धनाट्य मनुष्यका पुत्र था और भोग-विलासके जीवन से जयकर युद्धकी शरण में भाया था। पांच मासमें ६० पुरुषोंने बुद्ध धर्मको प्रहण किया। इन साठोंको उसने याज्ञा दी कि जिस सचाईको मने इतने घोर परिश्रमसे प्राप्त किया है उसको फैलानेके लिये भिन्न भिन्न खानोंको अलग अलग होकर चले जाओ। बुद्धने अपने जीवन में अनेक राजाओं महाराजाओं, सेठ.
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