. . १६ 'भारतवर्षका इतिहास मय हो गया था। इन दोनों पुस्तकोमें यद्यपि आचारका आदर्श यहुत ऊँचा है परन्तु ऐसा सरल नहीं जैसा कि वैदिक कालमें था। और.न समाजकी बनावट और न सामाजिक संगठन ही सादा था। 'धार्मिक दृष्टि। धार्मिक दृष्टिसे. घेदोंकी एकेश्वर-पूजापर बहुदेव-पूजाका कलस चढ़ चुका था। वैदिक देवताओंके स्थानमें विष्णु और शिव अधिक लोकप्रिय हो गये। थे। यशोंकी प्रक्रिया भी बहुत जटिल हो गई थी। रामायणमें 'महाराज. रामचन्द्रको और महाभारतमें श्रीकृष्णको विष्णुका 'अवतार कहा गया है। अवतारोंकी यह कल्पना भी नैदिक , कल्पना नहीं है। सामाजिक संगठन। यद्यपि इन दोनों पुस्तकोंमें ऐसे चिन मिलते हैं जिनसे यह प्रकट होता है कि ब्राह्मण गौर क्षत्रियों की प्रतिद्वंदिताका अमीतक अन्त नहीं हुमा था, तो भी ऐसा जान पड़ता है कि इन प्रन्योंके, प्रणयन-कालमें यर्ण-विभागका भाव अधिक दूढ़ हो चुका था। धर्मके विषयमें ग्राह्मण दूसरे वर्गों का हस्ताक्षेप पसदन करते थे। परन्तु दूसरे वर्ण. विशेषतः क्षत्रिय इस यातको स्वीकार नहीं करते थे कि धर्मफे विषयों में किसी दुसरेके सोचने - या अपने विचारोंको 'प्रगट करने या ब्राह्मणोंको यतलायी हुई रीतिसे विचरीत.आय. रण करने का अधिकार नहीं। ऐमा जान पड़ता है कि उप- निषदोंके विवादों और कथोपकथनोंके माधारपर इन महाका व्योके समयमें उस तत्वज्ञानकी आधारशिला रक्खी जा चुकी थी, जिसका परिणाम युद्ध धर्म हुमा। जनता ब्राह्मणों के नेता स्वसे कड़े धार्मिक पन्धनोंसेगतिरवाजोंके जटिल जालसे ऐसे तआ गयी कि उनमेंसे फरसे कम विचारशील लोग स्वतन्त्र . .
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