वर्ष वनोंमें घूमकर तेरहवं वर्ष उन्होंने : राजा विराटके यहाँ नौकरी कर ली। तेरहवां वर्ष समाप्त होनेको था अथवा हो चुका था कि हस्तिनापुर राज्यके मनुष्य विराटकी गउएं ले गये। अर्जुनने युद्ध करके उन गउओंको छुड़ाया । यद्यपि, अर्जुन वेष बदले हुए था, उसको किसीने नहीं पहचाना फिर भी दुर्योधनने यह प्रसिद्ध कर दिया कि अर्जुनके सिवा और किसीमें यह सामर्थ्य न थी जो यह काम करता । जय पाण्डवों- ने अपना राज्य वापस मांगा तब उसने इसी , यहानेसे राज्य देनेसे इन्कार कर दिया। अन्तको दोनों में एक भारी युद्ध हुआ। मार्यावर्तफे सभी राजे इसमें सम्मिलित थे। कोई पाण्डयों- की ओर और कोई कौरवोंकी ओर। श्रीकृष्ण पाण्डवोंकी मोर थो और इनकी सारी सेना कौरवोंकी यह सर्व विनाशकारी भयड्डर युद्ध बहुत दिनतक रहा । इसमें द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, हुर्योधन और हुशासन मादि सभी मारे गये। अन्तको असीम गर-संदारके पश्चात युधिष्ठिएको विजय प्राप्त हुई। युधिष्ठिर विजय पाकर दिल्लोके सिंहासनपर बैठा । आर्यावर्तके सब राजे असने जीत लिये। सन्तको उसने अश्वमेध यश किया। इससे सारे भारतवर्ष के महाराजाधिराजकी पदवी मिली। संक्षेपसे महाभारतकी कथा यही है। महाभारतमें धर्म, राजनीति और वारपर बडे बडे दुर्लम उपदेश हैं। एक प्रसंगमें दुसरा प्रसंग चलाकर कथाको इतना मेव यन-जयकाई राजा मार रामोंको नेसकर पपने अधीमबर देता था तब उसे रविवारीता पाकि वह एक घोगा शेऽद। शिसो रागालो मशाल न भी किया उस यो को पकड़ । वर्षभरतक कीड़ा पूमता रहना था। वर्ष भर यान उमे पक्षड़कर मारा लाया था। इस अवसरपर एक भारी यय एथयो को देर सीरित, सते..मो.मा. श्री महाराजाधिराज खोकार करते थे। ।
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