'मायों के महाकान्य अपने पतिकी सहायता करके उससे तीन बरपानेकी प्रतिज्ञा है दुकी थी। उसने इस समय वही प्रतिमा स्मरण कराई और राजासे वर मांगा कि रामचन्द्रजीको चौदह वर्षके लिये वन. पास और मेरे पुत्र भरतको राजतिलक दिया जाय । महाराज सशस्य यह सुनकर पड़े दुःखित हुए। यद्यपि उन्होंने रामचन्द्र- गीको माप वनवासको आहा नहीं दी, पर जब रामचन्द्रनीको सारी पातका पता लगा तब उन्होंने अपने पिताके पचतको पूरा परनेके निमित्त कैकयीकी इच्छानुसार कार्य करनेका हद निश्चय कर लिया। उनके छोटे भाई लक्ष्मण और धर्मपती सीताजी भी उनके साथ चलनेको तैयार हो गई। अन्ततः बहुत कुछ हेरफेरके पश्चात् धीरामचन्द्रजी, उनके भाई लक्ष्मण मौर श्रीसीताजी, ये तीनों दण्डक बनके लिये चल पड़े। भरत. नीने बड़े भाईके वियोग और माताके द्रोहपर केवल शोक ही नहीं प्रकट किया वरन् सारे परिवार और राजकर्मचारियों को साथ ले वह रामचन्दजीको मार्गमें जा मिले और उनसे लौट मानेकी प्रार्थाना करने लगे। पर उन्होंने ऐसा करनेसे इन्कार कर दिया। तब वह उनकी बड़ा साथ लाये और उनको राजसिंहासनपर रखकर बाप केवल एक निक्षेप-रक्षकके रूप में राज्य करने लगे। रामायणकी कया बड़ी ही हृदयद्रावक है और मायकि मर्म तथा आचारका एक अत्युत्तम नमूना है। इस घटनावलीको कविने ऐसी ललित और मर्मस्पर्शी भाषा- में वर्णन किया है और मानवी मावोंका ऐसी उतम रीतिसे चित्र चोंचा है कि उसकी तुलना किसी दूसरे साहित्यमें मिलनी बठिन है। कैकेयोके द्वेष, दशरयके शोक, रामचन्द्रजीकी पित. कि मोर धर्मपरायणता, कौशसाफे संताप, मणके मासु.
पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/११२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।