पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/१०४

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वदिक कालकी सभ्यता . . होता है कि वैदिक कालके बहुत समय पश्चात्तक जाति- पांतिमा यह बंधन पड़ा नहीं हुआ और उसपर वह जंजीरें नहीं लगाई गई जो वादको लगाई गई हैं। वर्ण-विभागका भारम्भ आजुर्वेदके इस एक मंत्रले बतलाया जाता है ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वय राजन्यः कृतः ऊरू तदस्य यद्वेश्यः पदम्या ७ शूद्रो अजायत ॥ यजुः ३१११ ॥ अर्थ-ब्राह्मण उसका (ईश्वरका ) मुह हुआ, क्षत्रिय बाहु, वैश्य टागें और शूद्र पैर। परन्तु इस मंत्रले केवल यही प्रकट होता है कि मन्त्रदृष्टापि- की दृष्टि में मनुष्यसे भिन्न भिन्न कर्म किस दर्जेकी प्रतिष्ठा और सम्मानके पात्र हैं। यह वर्णन अलङ्काररूपमें है न कि किसी सत्य घटनाके उल्लेखके रूपमें। और जो घटनायें इस काल और इसके पीछेके कालमें मालूम होती हैं उनसे भी इस बातका समर्थन होता है। देखिये, प्राचीन ' हिन्दू-शास्त्रोंमें सैकड़ों नाम ऐसे मनुष्योंके आते हैं जो अतीव छोटी जातियों में उत्पन्न हुए यौर फिर ब्राह्मणोंमें परिगणित हुए। ऐसे भी नाम पाये जाते हैं जो भारम्भमें ब्राह्मण थे परन्तु पीछेसे अपने दुप्फाँके कारण पतित हो गये। हिन्दू शास्त्रोंमें इस बात का यथेष्ट प्रमाण मिलता है कि वाहरसे पाये हुए विदेशियोंको यज्ञोपवीत देकर और गायत्रीका उपदेश करके द्विज बनाया गया और भारतके अन्त्यज लोगोंको भी यह पदवी दी गई। इससे साफ प्रकट होता है कि चिरकालतक आर्यसमाजमें वर्ण विभाग, केवल गुण, कर्म और स्वभावके अनुसार रहा, और आर्य लोग इस यातको अपना धर्म समझते रहे कि अनार्य लोगोंको उपदेश और शिक्षा द्वारा आयं बनाफर समाजमें सम्मिलित कर लें वर्ण-विभाग चौर जाति-भेद फव कड़ा हुभा, इसका फाल निरू-