मरते कटते देखकर उसको बड़ा तर्स आया और एकाएक उसका स्वभाव बिल्कुल बदल गया और कहने लगा कि अब मैं बुद्ध जी के धर्म पर चलूंगा और कभी किसी से लड़ाई न करूंगा। अशोक ने बुद्ध धर्म को अपने सारे राज का धर्म नियत किया और अपना नाम प्रियदर्शी रक्खा। इसका एक बेटा भिक्षु और एक बेटी भिक्षुणी हो गई। इसने दोनों को लङ्का भेजा कि वहां जाकर वे बुद्ध मत का प्रचार करैं। बौद्ध समाज के दूसरे सम्मेलन को प्रायः सवा सौ बरस से अधिक हो चुके थे और बुद्ध मत में कई प्रकार के उलट फेर हो गए थे। इनके निर्णय करने के लिए ईसा से २४२ बरस पहिले अशोक ने इस धर्म के १००० महात्माओं और विद्वानों की तीसरी बड़ी समाज इकट्ठा की। आशय यह था कि बुद्ध धर्म को पीछे की मिलावटों से रहित करके बुद्ध जीके मूल धर्म के अनुसार हो जाय—यह समाज पाटलीपुत्र में इकट्ठा हुआ।
बुद्ध धर्म के समस्त उपदेश पाली भाषा में लिख लिये गये। २००० बरस से कुछ अधिक से जो बुद्धमत के ग्रंथ दक्षिण एशिया में प्रचलित हैं वह इसी समाज के इकट्ठा किये हुए हैं। इसने बुद्ध धर्म प्रचार के निमित्त कश्मीर, गांधार, तिब्बत, बर्मा दखिन और लङ्का में भिक्षु भेजें।
३—अशोक ने २१ शासन लिखाये और जगह जगह सारे भारत में पत्थर की लाटों और पहाड़ों पर अङ्कित करा दिये। इनमें से कई आज तक विद्यमान हैं। एक प्रयाग में है, एक गुजरात में गिरनार पर्वत पर है। इन शासनों में बुद्ध धर्म की बड़ी बड़ी बातें सब आ जाती हैं जैसे दया करो, सुशील बनो, अपने चित्त को शुद्ध करो, दान दो। एक शिला पर यह लिखा हुआ है कि अशोक ने कलिङ्ग देश जीत लिया और पांच यूनानी बादशाहों से संधि की। इनमें से तीन—मिश्र, यूनान और शाम के