न खोता। उसके एक नौकर ने जिसका नाम जौहर था बादशाह का जीवन चरित लिखा है और अभीतक वह इतिहास पढ़नेवाले के लिये मौजूद है।
(१५४० ई॰ से १५५५ ई॰ तक)
१—शेरशाह अफगा़न जो असल में पेशावर से आया था सूर जाति का था। यह और इसके पीछे के तीन बादशाह सूर वंश के बादशाह कहलाते हैं।
इसका असली नाम फ़रीद खां था। इसका दादा बहलोल लोधी के समय में जङ्गी नौकरी की खोज में हिन्दुस्थान आया था। इसका बाप सुलतान जौनपुर की सरकार में सवारों का जमादार हुआ और उसको बिहार में कुछ थोड़ी सी जागीर भी मिल गई। फ़रीद खां एक दिन सुलतान के साथ शिकार खेल रहा था। उसने शेर को तलवार का एक हाथ ऐसा मारा कि वहीं वह गिर कर मर गया। बस सुलतान ने वहीं उसको शेर खां की पदवी दे दी।
२—जब शेर खां दिल्ली के तख़्त पर बैठा तो उसने अपना नाम शेरशाह रख लिया। यह शेर के समान बली और चतुर था। शत्रु पर दया करना तो जानता ही न था और जो देखता कि अपनी बात के तोड़ने में कोई नाम है तो उसमें भी नहीं चूकता था।