पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास.djvu/११२

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यह ठहरी कि रानी अपने राजभवन में पर्दे के पीछे बैठ जाय और उसके सम्मुख एक दर्पण रख दिया जाय और बादशा उसमें उसकी परछाईं देख ले। निदान अलाउद्दीन चित्तौड़ गढ़ गया और दर्पण में रानी का प्रतिबिम्ब देख लिया। लौटती समय भीमसिंह उसे उसके डेरे तक पहुंचाने गया। उस समय अलाउद्दीन ने भीमसिंह को कैद कर लिया और कहा कि जब तक पद्मिनी मुझसे ब्याह न करेगी तब तक तुम न छोड़े जाओगे। रानी ने देखा कि राजा के छुटकारे का सिवाय इसके और कोई उपाय नहीं है कि कुछ चालाकी से काम ले। इस कारण बादशाह से कहला भेजा कि मुझे स्वीकार है, मैं आती हूं। एक डोले में आप सवार हुई और सात सौ डोले और साथ लिये और सब के सब मुसलमानी डेरों की ओर चले। कहा तो यह गया कि उन सात सौ डोलों में रानी की सात सौ सहेलियां हैं परन्तु हर डोले में एक एक राज़पूत सूरमा हथियार बांधे बैठा था। केवल इतना ही नहीं बरन जो लोग कहारों की भांति डोलों को उठाये थे वह भी लड़ंतिये सिपाही थे। जब डोले मुसलमानी डेरों में पहुंचे तो अलाउद्दीन ने चाहा कि भीमसिंह और पद्मिनी को न जाने दे। इतने में राजपूत सूरमा तलवारें सूत कर डोलों से कूद पड़े और भीमसिंह और पद्मिनी को घोड़ों पर सवार करा कर लड़ते भिड़ते तलवारों की छाया में चित्तौड़गढ़ में पहुंचा दिया। अलाउद्दीन देखता ही रह गया। इस बार तो उसे हार मान कर भागना पड़ा किन्तु दो बरस पीछे पहिले से भी भारी सेना लेकर उसने चित्तौड़ पर चढ़ाई की। इस बार राजपूत इसके सामने ठहर न सके। बहुत से राजपूत कट कर मर गये और गढ़ के बचाव की कोई आशा न रही तो पद्मिनी तेरह हज़ार राजपूतनियों के साथ