श्रुतिशतमपि भूयः शीलितं भारतं वा विरचयति तथा नो हंत संतापशांतिम्।
अपि सपदि यथायं केलिविश्रांतकांता वदनकपलवल्गत्कांतिसान्द्रो नकारः॥३४॥
केलि से श्रमित कांता के वदनकमल से निकलाहुआ यह रसमय 'नकार' [न, न, कहना] शीघही संताप का जैसा शांत करता है वैसा अनेक बार सैकडों श्रुतियौं तथा भारत (इत्यादि) पुराणें का परिशीलन नही! ('न', 'न', कहना तो इतना सुखकर है यदि वह 'हँ' कहै तो नजानैं कितना सुख होगा! मूल में 'अपि' शब्द के प्रयोग से यह भाव ध्वनित होता है)
लवलीं तव लीलया कपोले कवलीकुर्वति कोमलत्विषा।
परिपांडुरपुंडरीकखंडे परिपेतुः परितो महाधयः[१]॥३५॥
(हे भामिनि!) तेरे कपोलकी लीलायुक्त कोमलकांतिने लवली[२] नामक लता की शोभाको हरण कर अत्यंत शुन्न कमलसमूहको सर्व ओरसे महान् भय उत्पन्न किया है (लवलीकी शोभाको ग्रास करके अब हमारी भी वही दशा करैगी इससे कमल भयभीत हुए यह भाव)