पुरो दधाने। मयि स्मितांर्द्र वदनारविंद सा मंदमदं नमयांबभूव[१]॥२९॥
हठ से [अथवा वेग से] जानेवाली (अर्थात् प्रसंग की इच्छा न रखनेवाली) कपोती को रोक कर शब्द करने वाले (रत्युत्सुक) कपोत के सन्मुख लानेवाले मुझे देख प्रियतमाने मुसुकुराते हुए वदनकमलको लज्जासे धीरेधीरे नीचा किया।
तिमिरं हरति हरितां पुरःस्थिता तिरयंति ताएमथ तापशालिनाम्॥
वदनविषस्तवचकोर लोचने परिसुद्रयंति सरसीरुहश्रियः[२]॥३०॥
हे चकोर के समान नयनोंवाली (भामिनी)! तेरी वदन कांति, दिशाओंमें व्याप्त हुए अंधकार को नाश करती है, संतप्त मनुष्यों की शोभा को आच्छादित करती है (तेरा मुख चंद्रमाहीं है यह भाव)
कुचकलशयुगांतर्मामकीनं नखांकं सपुलकतनु मंद मंदमालोकमाना।
विनिहितवदनं मां वीक्ष्य बाला गवाक्षे चकिततनु नतांगी सद्म सद्यो विवेश॥३१॥
(सुवर्ण) कलश [घट] के समान दोनौं कुचौंके मध्य में मेरे किये हुए नखौंको पुलकित होती हुई धीरे धीरे अवलोकन करने वाली चकितगात्री नतांगी (नम्र है अंग जिसका