संतत अश्रुधारा बरसाने वाली वस्त्रविहीना कृशांगी (भामिनी) को, इस देश अथवा इस स्थल में, हे कल्याणकारिणि निद्रे! तेरे बिना और कौन मेरे स्वाधीन करेगा? (प्रवासी विरही नायक कि उक्ति है; रात्रि समय स्वम में निज प्रिया को देख निद्रा की प्रशंसा करता है और अपने ऊपर उसके महान उपकार मानता है। सत्य है वियोगियों को ऐसी दशा परम सुखकारिणी होती है)
तीरे तरूण्या वदनं सहास नीरे सरोजं च मिलद्विकाशम्॥
आलोक्य धावत्युभयत्र मुग्धामरंद लुब्धालिकिशोरमाला[१]॥२२॥
(सरोवरके ) तीर में तरुणी (भामिनी) के सहास्य मुख और जल में विकसित कमल को अवलोकन कर मूर्ख मकरंदलोनी मधुपकिशोरपंक्ति दोनौं ओर धावन करती है (भ्रमर की प्रीत कमल से है परन्तु स्त्री मुख को देख उन्है कमलही का संदेह हुआ इस से इस श्लोक में 'संदेह' अलंकार जानना)
वीक्ष्य वक्षसि विपक्षकामिनीहारलक्ष्म दयितस्य भामिनी।
अंसदेशविनिवेशितां क्षणादाचकर्ष निजवाहुवल्लरीम्[२]॥२३॥
प्रीतम के हृदयस्थल पै सपत्नी के हार का चिन्ह देख कंठ[३]-