चारजो विवेकः। यदवधि न पदं दधाति चित्ते
हरिणकिशोरदृशो दृशोर्विलासः[१]॥ १४॥
कुशलता और पुराण, शास्त्र तथा स्मृतिके अनेक सुन्दर विचारों से उत्सन्न हुआ विवेक तभी तक है जब तक मृगशावकनयनी (भामिनी) के नेत्र विलास मन में स्थान (प्रवेश) नहीं करते? अर्थात् कामिनी के नयनबाण लगनै से शास्त्र कहीं के कहीं पड़े रहते है; उनमें कहीगई मर्यादा का कोई भी पालन नहीं करता)
आगतः पतिरितीरितं जनैः शृण्वती चकितमेत्य देहलीम्।
कौमुदीव शिशिरीकरिष्यते लोचने मम कदा मृगेक्षणा[२]॥१५॥
"(तरो) पति आगया" इस प्रकार सेहलियों से कहेगए. वचनों को श्रवण करके सविस्मय देहली पै चंद्रिका के समान आई हुई मृगनयनी (भामिनी कब मेरे नेत्रों की शीतल करेगी?)
अवधौ दिवसावसानकाले भवनद्वारि विलोचने दधाना।
अवलोक्य समागतं तदा मामथ रामा विकसन्मुखी बभूव[३]॥१६॥
संध्याकाल अवधि की वेर गृह की द्वारी (खिड़की)