भूमिका। देशवासियों को सुनाने लगे हैं ! क्रमशः प्राप्त होने वाले हमोर देश मुर्खत्वरूपी राहसे भयभीत होकर हमारा माननीय पुरातन ग्रंथ समुदाय रूपी चन्द्र अन्यद्वीपके प्रधान पुस्तकालयों में निज मान तथा कलेवर रक्षणार्थ तो नहीं पलायन कर गया ? जो हो, अब मैं इस विषय को यहीं समाप्त कर कतिपय पंक्तियोंसे पंडित राज ‘जगन्नाथरायका आदर करूंगा, क्योंकि वैसा शीघ्रही न करने से वाचक मेरे ऊपर निबंध विरुद्ध लेखनदोषका आरोप करेंगे। ६ प्रस्तुत ग्रंथकार का जीवन चरित्र न तो किसी ने लिखा और न स्वयं कविने स्वाविषयक स्वतंत्र पुस्तक रूप कुछभी कहा इससे उसके ग्रंथो तथा उसकी उन आख्यायिकों से जो आज पर्यंत श्रुतिपथ प्रवाहित हो रही हैं जितना वृत्त उपयोगी उद्धृत हो सकेगा उतना सव्यवस्थित वर्णन किया जायगा एक वृद्ध तेलंग देश वासी पंडित जिसका और मेरा दैवयोग से समागम हुआ और जिससे कई बातें जगन्नाथरायविषयक मैंने सुनौं वेभी इसी के अंतर्गत लिखी जायेगी। ___मैंने पंडितराजकृत गंगालहरीके भाषांतरके उपक्रममें ग्रंथ कारविषयक एक लघु लेख दिया है, परंतु इस स्थलमें जहां तक संभव है तहांतक विषेश विशेष वातों का उल्लेख करने का विचार है ___ यह अर्वाचीन महान पंडित किस किस स्थान का निवासी था यह निर्णय करना तो सर्वथैव अशक्य है, परंतु इतना कह सकते हैं कि उसका जन्मदेश तैलंग होगा क्योंकि उसके 'रसगंगा- 'नामक ग्रंथमे यह श्लोक पाया जाता है। पाषाणादपि पीयूषं स्यंदते यस्य लीलया। / तं वंदे पेलुभट्टाख्यलक्ष्मी कांतं महागुरुम् ॥ एतत्कन प्राणा भरणसंज्ञक ग्रंथमेंभी इसप्रकारका अंतमे एक श्लोकहै तैलंगान्वयमंगलालयमहालक्ष्मीदयालालितः श्रीमत्पेरमभट्टसूनुरनिशं विद्वल्ललाटंतपः।
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