हे आलि! कस्तूरी तिलक धारण करके हास्यमुखी हो त्साती संध्याकाल मै तू गृह की गच्ची पै गमन कर (जिसमें) प्रमोदयुक्त कुमुदगण विकाश पावें और दिशाओं के आसमंताद्भाग उल्लसित (भावार्थ-प्रकाशित) हो। (इस प्रकार का व्यापार होना संभव नहीं परंतु यहाँ उसका संबंध वर्णन किया इससे 'संबंधातिशयोक्ति अलंकार हुआ. 'रूपक' अलंकार भी भासित होता है मुखको चंद्र मान कस्तूरी तिलक से कलंकित किया और हास्यरूपी चंद्रिका को प्रकाशित कर चंद्रविकाशी कमलों को विकसित और दिशाओंको प्रकाशित करना दरसाया)
तन्मंजुमंदहसितं श्वसितानि तानि सा वै कलंकविधुरा मधुराननश्रीः।
अद्यापि मे हृदयमुन्मदयंति हंत सायंतनाम्बुजसहोदरलोचनायाः॥५॥
संध्या समय में (फूलनेवाले चंद्रविकाशी) कमल के समान नेत्रौंवाली (भामिनी) की वह मंजुल मंद हसनि, वे वचन और वह निष्कलंक मनोहर मुखकी छवि अभी तक मेरे मन को क्षोभित करती है हाय यह बड़ा दुःख है! (यह विरही नायक की उक्ति है)
प्रातस्तरां प्रणयने विहिते गुरूणामाकर्ण्य वाचममलां भव पुत्रिणीति।
नेदीयसि प्रियतमे परमप्रमोदपूर्णादरं दमितया दधिरे दृगन्ताः॥६॥