अथवा अपर किसी सत्पुरुष को कवि इस श्लोक से आशीर्वाक्य कहते हुए निद्रा त्याग करना सूचित करता है)
भामिनीविलास के प्रास्ताविक नामक प्रथम विलास का प्राकृत भाषानुवाद समाप्त हुआ॥
अथ भामिनीविलासे।
द्वितीयः शृंगार विलासः।
न मनागपि राहुरोधशंका न कलंकानुगमो न पांडुभावः।
उपचीयत एव कापि शोभा परितो भामिनि ते मुखस्य नित्यम्[१]॥१॥
हे भामिनि! तेरे मुख (चंद्र) के आस पास अवर्णनीय शोभा नित्य ही रहती है, न तो उसे राहु से तनिक भी आच्छादित होने की शंका, न कलंक का अनुगम और न पांडु वर्ण (होने का भय) अर्थात्-चंद्रमा में ये तीन दोष हैं परंतु तुझमें इनमें से एक भी नहीं, इस से तेरे निष्कलंक मुखका परम शोभायमान होना उचित ही है। (चंद्रमा उपमान और भामिनी मुख उपमेयहै, उपमान से उपमेय में विशेषता वर्णन की इस से 'व्यतिरेक' अलंकार हुआ)
नितरां परुषा सरोजमाला न मृणालानि विचारपेशलानि।
यदि कोमलता तवांगकानामथका नाम कथापि पल्लवानाम्[२]॥२॥