करके सर्पिणी के धर्म के आक्षेपण में 'अपह्नति' अलंकार भी हुआ)
कृतं महोन्नतं कृत्यमर्जितं चामलं यशः॥
यावज्जीवं सखे तुभ्यं दास्यामो विपुलाशिषः॥११२॥
हे मित्र! तूने परम श्रेष्ठ कार्य किया और विमल यश संपदा इससे मैं तुझे यावज्जीवन अनेकानेक आशीर्वचन देता रहूंगा (अत्युपकार करनेमें असमर्थ हूं यह भाव) दूसरा अर्थ व्यंग से ऐसा लगाना कि तूने उत्तम कृत्य किया अतएव विमल यश का भागी हुवा. इससे जब तक प्राण हैं मैं तुझे आशीश दिया करूंगा (अपकार करनेवाले की इस प्रकार प्रशंसा करके तौ दुष्ट कृत्यसे उत्पन्न हुआ दुःख कभी न अर्गा यह सूचित किया)
अविरतं परकायंकृतां सतां मधुरिमातिशये न वचोऽमृतम्।
अपि च मानसमंबुनिधिर्य्यशोविमलशारदपार्व्वणचंद्रिका[१]॥११३॥
संतत परोपकार करनेवाले सत्पुरुषों के वचन अत्यंत मधुर होने से अमृत (के तुल्य होते) हैं, हृदय सागर (के तुल्य) और यश शरत्कालके पूर्णिमाकी विमल चन्द्रिका (के दुल्य होता) है (वचन और अमृत, हृदय और सागर, यश और चन्द्रिका का समान स्वरूप प्रतिपादन किया इससे 'अभेद रूपक' अलंकार हुआ)
- ↑ यह 'द्रुतविलंबित छंद है।