(दुर्जन सर्वदा सत्पुरुषों से द्वेष रखते हैं ऐसा स्पष्ट न कहकर यह कहा कि तू उनको विस्मरण नहीं करता; इसप्रकार की प्रशंसा करना निंदा हुई इससे इस श्लोक में 'व्याज निंदा अलंकार समुझना चाहिये)
रे खल तव खलु चरितं विदुषां मध्ये विविच्य वक्ष्यामि।
अथवालं पापात्मन् कृतथा कथयापि ते हतया॥१०८॥
अरे खल! मैं तेरे (नष्ट) चरितों को सत्पुरुषों के बीच में अली शांति प्रकट करूंगा (इस प्रकार का मेरा बिचारथा) परंतु हे पापात्मन्! तेरे दुष्कृत्य (जिन्हैं तू प्रत्यक्ष करता है। कहने में भी मेरा चित्त दुखित होता है इससे उन महानिंद्य कर्मों) का उल्लेख भी बस है अर्थात् वैसा स्वमुखसे कहना भी मुझे असह्य है (इसमें खल चरित्र वर्णन करना अंगीकार करके फिर उसका निषेध किया इससे 'प्रतिषेध' अलंकार हुआ)
आनंदमृगदावाग्निः शीलशाखिमदद्विपः॥
ज्ञानदीपमहावायुस्यं खलसमागमः॥१०९॥
(इस संसार में) खलों का समागम आनंदरूपी मृग के (नाश करने के लिए अग्नि; शीलरूपी वृक्षके (उखाडने के) लिए मत्त हस्ती और ज्ञानरूपी दीप के (बुझाने के) लिए प्रचंड पवन है (इसमें आनंदमृग, शील शाखि, ज्ञानदी-