भूमिका। तथा नूतनग्रंथका वाचन आरंभ करनेके पहिले ग्रंथकारका इस त्रि, उसका काल, ग्रंथनिरमाणकारण इत्यादि विषयोंके जग उत्कंठा सर्व रसज्ञ वाचकोंके मनमें स्वभावतः आविर्भूत वाः । परंतु, भारतवर्षमें कवियों, राजाओं तथा अपर प्रसिद्ध के जीवनचरित्र लिखनेकी विशेष परिपाटी प्राचीनकालमें न से, वाचकोंकी मनस्तृप्ति इस विषयमें कहां तक सुफल होती है है, बहुधा सर्वग्रंथवाचकसमूहको विदितही है । इतिहास के मि और उसके ग्रंथनकी प्रथा हमारे पूर्वज न जानते थे यह कहना ग्य नहीं, क्योंकि, 'राजतरंगिणी, ! ' श्रीहर्षचरित । 'विक्रमा- देवचरित ? आदिक इतिहास गीर्वाण भाषामें अद्यापि विद्यमान हैं। राजतरंगिणी' में काश्मीर देशका इतिहास है, इसमें भिन्न भिन्न । पंडितोंने अकवर वादशाहके समयतकका भली भांति वर्णन किया है। दूसरे दो अपने अपने नामके राजाओंके चरित्रदर्शक हैं और अनुक्रम से ' वाणभदृ । और — विल्हण ' के रचेहुए हैं। 'इतिहास' शब्दमें जिनका समावेश होसके ऐसे केवल यही ग्रंथत्रय मेरे अव- लोकनमें आये हैं । हमारे पूर्वजोंने कितने और कौन कौन ऐतिहा- सिक ग्रंथ निर्माण किए इसका पता लगाना इस समयमें बहुधा. असंभव होगया है । प्रस्तुत कालमें इस विषयके ग्रंथोंके उपलब्ध न होनेका कारण या तो अनेक मतांतरवालोंके द्वारा या अन्यदेशीय राज्यसत्तात्मक फेर फारके संचारसे नष्ट होजाना है। अथवा यह कहना भी कुछ अंश अयोग्य न होगा कि हमारा देश पूर्वकालमें स्वतंत्रावस्थानमें रहा और इसी से वर्णन योग्य चमत्कारिक कथा हमारे संस्कृत विद्वानोंको न मिली कि जिससे वे किसी मनोहर
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