पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/५७

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विलासः१]
(३७)
भाषाटीकासहितः।

के सिर पै शृगाल पैर रखवैंगै (इसमें प्रस्तुत मूर्खों का वर्णन करके अप्रस्तुत शशा, शृगालादि का वृत्त कह उनके गुण की सादृश्यता सूचित की इससे 'तुल्ययोगिता' अलंकार हुआ। यदि पंडितों के सन्मुख मूर्ख वाचालता करने लगें तो शृगालो का सिंहों के मस्तक पै पाद रखना इत्यादि कुछ आश्चर्य नहीं इस प्रकार कहने से 'काव्यापत्ति' अलंकार भी भासित हुआ)

गीर्भिर्गुरूणां परुषाक्षराभिस्तिरस्कृता यान्ति नरा महत्त्वम्।
अलब्धशाणोत्कषणा नृपाणां न जातु मौलौ मणयो वसन्ति[१]॥७३॥

गुरु के कठोर शब्दों से जिनका तिरस्कार होता है वेही मनुष्य महत्व को प्राप्त होते हैं. बिना खराद पै चढाईहुई मणियां राजाओं के मुकुट में कदापि वास नहीं पातीं ('अर्थांतरन्यास' अलंकार है)

वहति विषधरान् पटीरजन्मा शिरसि मषीपटलं दधाति दीपः।
विधुरपि भजतेतरां कलंकं पिशुनजनं खलु बिभ्रति क्षितीन्द्राः[२]॥७४॥

चंदन सर्पों को शिरपर रहने देता है; दीपक कालिमा को रखता है. चन्द्रमा कलंक को धारण करता है! (और) नरेश दुष्टजनों को(अपने समीप भाग में) स्थान देते हैं (इस श्लो-


  1. यह 'उपजाति' छंद है।
  2. 'पुष्पिताग्रा' छंद है।