रुप उदार तो होते ही हैं परंतु विपत्ति में वे अपने विशेष उदारत्व को प्रकट करतेहैं (इस श्लोक में सत्यपुरुषों के उदारत्व का सामान्य रीति से वर्णन करके कालागुरु के विशेष उदाहरण से अर्थ को दृढ़ किया इससे 'अर्थांतरन्यास' अलंकार हुआ)
विश्वाभिरामगुणगौरवगुम्फितानां।
रोषोऽपि निर्मलधियां रमणीय एव।
लोकम्पृणैः परिमलैः परिपूरितस्य।
काश्मीरजस्य कटुतापि नितांतरम्या॥७१॥
संसारके परमोत्तम गुणगौरव को धारण करनेवाले निर्मल बुद्धि पुरुषों का क्रोध भी मनोहर होता है मनुष्यों को संतोष देनेवाली सुगंध से परिपूरित केशर [कुंकुम] की कटुता भी अच्छी लगती है (इसमें भी 'अर्थांतरन्यास' अलंकार है)
लीलालुण्ठितशारदापुरमहासम्पन्नराणां पुरो।
विद्यासद्मविनिर्गलत्कणमुषो वल्गन्ति चेत् पामराः॥
अद्य श्वः फणिनां शकुंतशिशवो दन्तावलानांशशाः।
सिंहानाञ्चसुखेन मूर्द्धसु पदं धास्यंति शालावृकाः७२
पंडितों के मुख से निकले हुए दो चार शब्दों की चोरी करके यदि दुष्टजन, लीला से शारदापुर की संपत्ति [पांडित्य] को लूटनेवाले अर्थात् महाविद्वान् पुरुषों के सन्मुख प्रगल्मता करें तो (यह समुझना) कि आज काल में सर्पों के सिरपै पक्षियों के बालक, गजों के सिर पै शशा और सिंहों