पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/५४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३४)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

साधूनामरयो वसंति कति नो त्वत्तुल्यकक्षाः खलाः॥६७॥

हे व्याध! तू अपने मन में इस प्रकार की चिंता करके संतापित न हो कि संसार में प्राणीयों के प्राण नाश करनेवाला मैं ही एक मात्र निर्दई हूं (अरे) साधुओं [सत्पुरुषों] के प्राणनिधन करनेवाले और गूढ़ अभिप्रायवाले [मुख में एक मन में दूसरी बात के रखनेवाले] तेरे समान दुष्टजन राजमंदिरों तथा श्रेष्ठ तीर्थों में थोड़े नहीं हैं अर्थात् बहुत हैं! (तात्पर्य यह कि क्षेत्रों और राजदारों में भी अनीति होती है। इस श्लोक में व्याध की सामान्यता और खलों की विशेषता वर्णन की इससे 'अर्थांतरन्यासालंकार' हुआ)

विश्वास्य मधुरवचनैः साधून् येवंचयांत नम्रतमाः॥
तानपि दधासि मातः काश्यपि यातस्तवापि चं विवेकः॥६८॥

हे वसुंधरे जननि! तेरा भी विवेक जाता रहा (क्योंकि शरण आए हुओं में पात्रापात्र का विचार न कर सबका रक्षण करने को उद्यता हो) उन मनुष्यों को भी (तू अपने ऊपर) धारण करती है जो मधुर वचनों से विश्वास उत्पन्न करके साधुओं से भी छल करते हैं (सज्जन, शरणागत के दोषों पै ध्यान न देकर उसका परिपालन नहीं करते हैं। तेरा भी विवेक गया, इस प्रकार से पृथ्वी की निंदा करके