पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/४८

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[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

र्मन्थाद्रिभ्रमणभ्रमं त्हृदि हरिदंतावलाः पेदिरे॥
सोऽयं तुंगतिमिंगिलांगकवलीकारक्रियाकोविदः।
क्रोडे क्रीड़तु कस्य केलिकलहत्यक्तार्णवो राघवः५५

सागरके जल में जिसके क्रीडा करने से चारों ओर उठी हुई चंचल तरंगो के कोलाहल को श्रवण करके दिग्गजों के मन में मंदराचल (पर्वत) से समुद्रमंथन का भ्रम हुआ वही, बड़े बड़े मत्स्यों को भक्षण करने की क्रिया में कुशल, राघवनामी मत्स्यराज कलह के कारण समुद्र को छोड़ और कहां केली करेगा? (यदि एक महान महीपाल अल्प कलह होने से अपनी राजधानी को त्यागना चाहे तो उचित नहि इस अन्योक्ति को कई दृष्टान्तौं मे घटित कर सकते हैं)

लूनं मत्तमतंगजैः कियदपि च्छिन्नं तुषारार्द्दितैः।
शिष्टं ग्रीष्मजभानुतीक्ष्णकिरणैर्भस्मीकृतं काननम्॥
एषा कोणगता मुहुः परिमलैरामोदयन्ती दिशो।
हा कष्टं ललिता लवंगलतिका दावाग्निना दह्यते५६॥

कुछ वन को मत्त गजौं ने तोड डाला, कुछ तुषार से नष्ट हो गया, शेष ग्रीष्मर्त्तु के सूर्य की तीक्ष्ण किरणो ने भस्म कर दिया, रही यह सुंदर लवंगलता जो एक कोने मे लगीहुई अपनी सुगंध से सर्व दिशाओं को सुगंधित करती थी उसे दावाग्नि दहन करती है; हाय हाय यह बड़े कष्ट की