पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/२९

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विलासः१]
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भाषाटीकासहितः।

धन्यं जीवनमस्य मार्गसरसो धिग्वारिधीनां जनुः१६

ग्रीष्मकाल के सूर्य की परमप्रचंड ज्वाला से मेरे शीघ्रही शुष्क हो जाने पर ये पिपासाकुल पथिक किसके निकट जावैंगे? ऐसा कहने वाला मार्ग का तड़ाग, जिसका शरीर निरंतर आपत्तियों से क्षीण होता है, धन्य है, परंतु अखंड जल परिपूर्ण सागर को धिक्कार है (क्योंकि वह उपकार करनेमें समर्थ नहीं)(तात्पर्य-धनाढ्य होकर भी दान न दिया तो धिक्कार है और अल्प वैभव में जिसने परोपकार किया तो फिर क्या कहना, उसी का जीवन सुफल है।)

[]आपेदिरेऽम्बरपथं परितः पतंगा।
भृंगा रसालमुकुलानि समाश्रयंते॥
संकोचमंचितसरस्त्वयि दीनदीने।
मीनो नु हन्त कतमां गतिमभ्युपैतु॥१७॥

हे सरोवर! तेरे शुष्क हो जाने पर (तेरे जलवासी) पक्षी तो आकाश को उड़जावैंगे, और (तेरे जलोत्पन्न कमलौ पै गुंजार करनेवाले) भृंग आम्र कलिकाऔं का आश्रय लेंवैंगे, परन्तु इस महादीन मीनकी हाय! क्या गति होगी! (दाता को निर्धनता प्राप्त होने से वे याचक जिनको दूसरे ठौर आश्रय मिलसकता है अन्यस्थलमें जाकर निर्वाह करैंगे


  1. वसंततिलका छंद।