उपरि करवालधाराकाराः क्रूरा भुजंगमपुंगवाः॥ अन्तः साक्षादाक्षादीक्षागुरवो जयंति केऽपि जनाः१४
कोई कोई सत्पुरुष ऊपर से तो सर्प समान क्रूर और खड्ग की धारा के समान तीक्ष्ण दिखाई देते हैं परंतु अंतःकरण में परमोचम द्राक्षा के तुल्य मीठा उपदेश देने में समर्थ होतेहैं (साधारण सज्जन प्रशंसा है)
[१]स्वच्छन्दं दलदरविन्द ते मरन्दं।
विन्दन्तो विदधतु गुंजितं मिलिंदाः॥
आमोदानथ हरिदंतराणि नेतुं।
नैवान्यो जगति समीरणात् प्रवीणः॥१५॥
हे प्रफुल्लित कमल? तेरे स्वच्छंद मकरंद को ग्रहण करके भ्रमर गुंजार करते रहैं परंतु पवन के अतिरिक्त तेरी सौरभ को सर्व दिशाओं में ले जाने को दूसरा और कोई समर्थ नहीं। (राजाओं के यहां अनेक पंडित और गुणी जनौं का पालन तो होता ही है परंतु बिना कवियोंके राजा के गुण तथा पराक्रम का वर्णन दूर देशों में नहीं हो सकता)
[२]याते मय्यचिरान्निदाघमिहिरज्वालाशनैः शुष्कतां
गन्ता कं प्रति पांथसंततिरसौ संतापमालाकुला।
एवं यस्य निरंतराधिपटलैनित्यं वपुः क्षीयते।